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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ३८. कात्यायन प्राचीन भारतीय व्यवहार एवं व्यवहार-विधि के क्षेत्र में नारद, बृहस्पति एवं कात्यायन त्रिरत्नमण्डल में आते हैं। कात्यायन की व्यवहार-सम्बन्धी कृति अभी अभाग्यवश प्राप्त नहीं हो सकी है। विश्वरूप से लेकर वीरमित्रोदय तक के लेखकों द्वारा उद्धृत विवरणों के आधार पर निम्न विवेचन उपस्थित किया जाता है शंख-लिखित, याज्ञवल्क्य एवं पराशर ने कात्यायन को धर्मवक्ताओं में गिना है। बौधायनधर्मसूत्र में भी एक कात्यायन प्रमाणरूप से उद्धृत हैं। शुक्ल यजुर्वेद का एक श्रौतसूत्र एवं श्राद्धकल्प कात्यायन के नाम से ही प्रसिद्ध है। व्यवहार-सम्बन्धी विषयों की व्यवस्था एवं विवरण में कात्यायन ने सम्भवतः नारद एवं बृहस्पति को आदर्श माना है। शब्दों, शैली एवं पदों में कात्यायन नारद एवं बृहस्पति के बहुत निकट आ जाते हैं। कात्यायन ने स्त्री-धन पर जो कुछ लिखा है, वह उनकी व्यवहार-सम्बन्धी कुशलता का परिचायक है। उन्होंने ही सर्वप्रथम अध्यग्नि, अध्यावहनिक, प्रीतिदत्त, शुल्क, अन्वाधेय, सौदायिक नामक स्त्रीधन के कतिपय प्रकारों की चर्चा की है। निबन्धों में कात्यायन के तत्सम्बन्धी उद्धरण प्राप्त होते हैं। लगभग दस निबन्धों में कात्यायन के व्यवहार-सम्बन्धी ९०० श्लोक उद्धृत हुए हैं। केवल स्मृतिचन्द्रिका ने ६०० श्लोकों का हवाला दिया है। कात्यायन ने भृगु के मतों का उल्लेख किया है, और वे उद्धृत मत वर्तमान मनुस्मृति में मिल जाते हैं। कुल्लूक ने लिखा है कि कात्यायन ने भृगु का नाम लेकर मनु के ही श्लोकों की व्याख्या कर दी है। किन्तु बहुत-से भृगु-सम्बन्धी उद्धरण मनुस्मृति में नहीं पाये जाते। इतना ही नहीं, कई स्थानों पर कात्यायन ने मनु का भी नाम लिया है, किन्तु ऐसे स्थानों के उद्धरण वर्तमान मनुस्मृति में नहीं मिलते। लगता है, कात्यायन के समक्ष मनुस्मृति का कोई बृहत् संस्करण था जो भृगु द्वारा घोषित था। निबन्धों में मनु, याज्ञवल्क्य एवं बृहस्पति के साथ कात्यायन के श्लोक भी आये हैं, यथा--स्त्रीधन के छ: प्रकारों के सम्बन्ध में जो श्लोक आया है, वह दायभाग द्वारा मनु एवं कात्यायन का कहा गया है । 'वर्णानामानुलोम्येन दास्यं न प्रतिलोमतः' की अर्धाली याज्ञवल्क्य एवं कात्यायन दोनों में पायी जाती है। वीरमित्रोदय ने बृहस्पति एवं कात्यायन के नाम एक श्लोक मढ़ दिया है। व्यवहार, चरित्र एवं राजशासन की परिभाषा कर वेने में बृहस्पति एवं कात्यायन एक-दूसरे के सन्निकट आ जाते हैं। कात्यायन ने मनु (मानव), बृहस्पति एवं भृगु के अतिरिक्त अन्य धर्मशास्त्रकारो के नाम लिये हैं, यथा-कौशिक, लिखित आदि। कात्यायन ने स्वयं अपना नाम भी प्रमाण के रूप में लिया है। नारद एवं बृहस्पति के समान कात्यायन ने भी व्यवहार एवं व्यवहार-विधि के विषय में अग्रगामी मत दिये हैं। कहीं-कहीं कात्यायन इन दोनों से भी आगे बढ़ जाते हैं। कात्यायन ने व्यवहार-सम्बन्धी कुछ नयी संज्ञाएँ भी दी हैं, यथा-'पश्चात्कार', 'जयपत्र' आदि। पश्चात्कार वह निर्णय है जो वादी एवं प्रतिवादी के बीच गर्मागर्म विवाद के फलस्वरूप दिया जाता है। 'जयपत्र' नामक निर्णय को कात्यायन ने दस है। यह वह निर्णय है जो प्रतिवादी की स्वीकारोक्ति या अन्य कारणों से अभियोग के सिद्ध होने के फलस्वरूप दिया जाता है। यदि कोई व्यक्ति अपने पक्ष का समर्थन न करके हलका निमित्त उपस्थित करता है, तो उसे न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के उपरान्त अधिक शक्तिशाली निमित्त देने की अनुमति नहीं दी जा सकती। कात्यायन का काल-निर्णय सरल नहीं है। वे मनु एवं याज्ञवल्क्य के बाद आते हैं, इसमें सन्देह नहीं है। उनके पूर्व नारद एवं बृहस्पति आ चुके प्रतीत होते हैं। अतः अधिक-से-अधिक वे ईसा बाद तीसरी या चौथी शताब्दी तक जा सकते हैं । विश्वरूप एवं मेधातिथि ने कात्यायन को नारद एवं बृहस्पति के समान ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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