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________________ बृहस्पति अथवा धर्मशास्त्रकोविद के रूप में देखेंगे। अभाग्यवश हमें अभी बृहस्पतिस्मृति सम्पूर्ण रूप में नहीं मिल सकी है। यह स्मृति एक अनोखी स्मृति है, इसमें व्यवहार-सम्बन्धी सिद्धान्त एवं परिभाषाएँ बड़े ही सुन्दर ढंग से लिखी हुई हैं। डा० जॉली ने ७११ श्लोक एकत्र किये हैं। याज्ञवल्क्य ने बृहस्पति को धर्मशास्त्रकारों में गिना है। बृहपति ने वर्तमान मनुस्मृति की बहुत-सी बातें ले ली हैं, लगता है, मानो वे मनु के वार्तिककार हों। बहुत-से स्थलों पर बृहस्पति ने मनु के संक्षिप्त विवरण की व्याख्या कर दी है। अपरार्क, विवादरत्नाकर, वीरमित्रोदय तथा अन्य ग्रन्थों के आधार पर हम बृहस्पति में आयी व्यवहार-सम्बन्धी सूची उपस्थित कर सकते हैं, यथा--व्यवहाराभियोग के चार स्तर; प्रमाण (तीन मानवीय एवं एक दैवी क्रिया); गवाह (१२ प्रकार के); लेखप्रमाण (दस प्रकार); मुक्ति (स्वत्व); दिव्य (९ प्रकार); १८ स्वत्व; ऋणादान; निक्षेप; अस्वामिविक्रय ; संभूय-समुत्थान, दत्ताप्रदानिक, अभ्युपेत्याशुश्रूषा; वेतनस्यानपाकर्म; स्वामिपालविवाद; संविद्व्यतिक्रम; विक्रीयासम्प्रदान; पारुष्य (२ प्रकार); साहस (३ प्रकार); स्त्रीसंग्रहण; स्त्रीपुंसधर्म; विभाग; द्यूत; समाह्वय; प्रकीर्णक ('नृपाश्रय व्यवहार' या वे अपराध जिनके लिए स्वयं राजा अभियोग लगाये)। सम्भवतः बृहस्पति सर्वप्रथम धर्मशास्त्रज्ञ अथवा धर्मकोविद थे, जिन्होंने 'धन' एवं 'हिंसा' (सिविल एवं क्रिमिनल अथवा माल एवं फौजदारी) के व्यवहार के अन्तर्भेद को प्रकट किया। उन्होंने १८ पदों (टाइटिल) को दो भागों में, यथा-धन-सम्बन्धी १४ तथा हिंसा-सम्बन्धी ४ पदों में विभाजित किया। बृहस्पति ने युक्तिहीन न्याय की भर्त्सना की है। उनके अनुसार निर्णय केवल शास्त्र के आधार पर नहीं होना चाहिए, प्रत्युत युक्ति के अनुसार होना चाहिए, नहीं तो अचोर, चोर तथा साधु, असाधु सिद्ध हो जायगा। उन्होंने व्यवहार की सभी धियों की विधिवत् व्यवस्था की है और इस प्रकार वे आधुनिक न्याय-प्रणाली के बहुत पास आ जाते हैं। बहुत-सी तातों में नारद एवं बृहस्पति में साम्य है। कहीं-कहीं अन्तर्भेद भी है। नारद मनु की बहुतसी बातों से आगे हैं, किन्तु बृहस्पति उनके अनुसार चलनेवाले हैं, केवल कुछ स्थलों पर कुछ विभेद दिखाई पड़ता है। बृहस्पति मनु एवं याज्ञवल्क्य के बाद के स्मृतिकार हैं, किन्तु उनके और नारद के सम्बन्ध को बताना कुछ कठिन है। उन्होंने 'नाणक' सिक्के की चर्चा की है। उन्होंने दीनार की परिभाषा की है। दीनार को 'सुवर्ण' भी कहा गया है। एक दीनार १२ धानक के बराबर होता है तथा एक धानक ८ अण्डिकाओ के बराबर। एक अण्डिका एक ताम्र-पण है जिसकी तौल एक कर्ष के बराबर है। यह वर्णन नारद में भी पाया जाता है। डा० जॉली के अनुसार बृहस्पति छठी या सातवीं शताब्दी में हुए थे। किन्तु अन्य सूत्रों के आधार पर ये बहुत बाद के स्मृतिकार ठहरते हैं। विश्वरूप एवं मेधातिथि के अनुसार नारद एवं बृहस्पति के साथ कात्यायन भी प्रामाणिक लेखक माने जाते हैं। यह प्रामाणिकता कई शताब्दियों के उपरान्त ही प्राप्त हो सकती है। कात्यायन तथा अपरार्क ने भी बृहस्पति से उद्धरण लिये हैं। अन्य सूत्रों के आधार पर बृहस्पति को २०० एवं ४०० ई० के बीच में कहीं रखा जा सकता है। वे कहाँ के रहनेवाले थे, इसके विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। स्मृतिचन्द्रिका में बृहस्पति के श्राद्ध-सम्बन्धी लगभग ४० उद्धरण आये हैं। पराशरमाधवीय, निर्णयसिंधु तथा संस्कारकौस्तुभ में बृहस्पति के अनेक श्लोक उद्धृत हैं। मिताक्षरा ने भी बहुत स्थलों पर बृहस्पति के धर्मशास्त्रीय नियमों का उल्लेख किया है। मिताक्षरा में व्यवहार एवं धर्म-सम्बन्धी दोनों प्रकार के उद्धरण हैं। अभाग्यवश बृहस्पति का सम्पूर्ण ग्रन्थ अभी नहीं प्राप्त हो सका है। मिताक्षरा में वृद्ध-बृहस्पति के उद्धरण मी हैं। हेमाद्रि ने ज्योतिबृहस्पति का भी नाम लिया है। अपराक ने वृद्ध-बृहस्पति से कुछ उद्धरण लिये हैं। धर्म-८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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