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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रकाशित स्मृति में (अनुक्रमणिका को लेकर ) १०२८ श्लोक हैं। कतिपय निबन्धों में लगभग ७०० श्लोक आ गये हैं। 'अभ्युपेत्याशुश्रूषा' प्रकरण के २१वें श्लोक तक असहाय का भाष्य मिलता है । विश्वरूप, मेधातिथि, मिताक्षरा में इस स्मृति के कई उद्धरण मिलते हैं। स्मृतिचन्द्रिका, हेमाद्रि, पराशरमाधवीय तथा कालान्तर के निबन्धों में नारद के श्लोक उद्धृत मिलते हैं। प्रारम्भिक गद्यांश को छोड़कर, जिसमें नारद, मार्कण्डेय, सुमति भार्गव द्वारा मनु के मौलिक ग्रन्थ के संक्षिप्तीकरण की बात है, सम्पूर्ण नारदस्मृति अनुष्टुप् छन्द में है ( केवल दूसरे अध्याय के ३८वें एवं सभा के अन्तिम छन्द को छोड़कर) । इस स्मृति में नारद का भी नाम आया है ( ऋणादान, २५३ ) । आचार्यों, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र की चर्चा आयी है । धर्मशास्त्र को अर्थशास्त्र से अधिक मान्यता दी गयी है। नारद ने वसिष्ठधर्मसूत्र एवं पुराण की भी चर्चा की है। मनु को तो कितनी ही बार उद्धृत किया गया है और स्थान-स्थान पर साम्य एवं विरोध प्रकट किया गया है। कभी-कभी नारदस्मृति को मनु पर आधारित माना जाता है। नारद में महाभारत के कई श्लोक आये हैं। कौटिल्य और नारद में कुछ स्थानों पर साम्य पाया जाता है । सम्भवत: नारदस्मृति याज्ञवल्क्यस्मृति के बाद की रचना है। याज्ञवल्क्य में दिव्य के केवल पाँच प्रकारकये जाते हैं, किन्तु नारद में सात हैं। इसी प्रकार बहुत-सी भिन्नता की बातें हैं जो नारद को याज्ञवल्क्य के बाद का स्मृतिकार सिद्ध करने में सहायता करती हैं। हो सकता है कि दोनों कृतियाँ समकालीन रही हों, किन्तु नारदीय याज्ञवल्कीय से कुछ बाद की रचना प्रतीत होती है । नारदीय में राजनीति पर केवल परोक्ष रूप से यत्र-तत्र चर्चा हुई है; विशेषतः व्यवहार सम्बन्धी बातों का ही विवेचन किया गया है। इसलिए बाण द्वारा उल्लिखित नारदीय चर्चा किसी दूसरे नारदीय ग्रन्थ के विषय में है, क्योंकि बाण ने राजनीति के सम्बन्ध में ही नारद की ओर संकेत किया है। ५६ जीमूतवाहन की व्यवहारमातृका एवं पराशरमाधवीय ने एक ऐसा नारदीय श्लोक उद्धृत किया है जिसका अर्धभाग विक्रमोर्वशीय में मिलता है। अभाग्यवश कालिदास के कालनिर्णय में अभी बहुत मतभेद है, तथापि चौथी या पाँचवी शताब्दी का प्रथम अर्ध सामान्यतः विश्वास के योग्य है। यदि यह ठीक है तो नारद की तिथि पाँचवीं शताब्दी के बहुत पहले ठहरती है, क्योंकि उपर्युक्त उद्धरण नारद से ही लिया गया होगा न कि नाटक से। नारद में 'दीनार' शब्द आया है, जो डा० विन्तरनित्ज द्वारा दूसरी या तीसरी शताब्दी का माना जाता है । किन्तु डा० कीथ के मतानुसार 'दीनार' शब्द और पुराना है क्योंकि रोमकों ने ईसा पूर्व २०७ में 'दीनार' सिक्का बनवाया था, जिसे शकों ने ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में भारत में भी ढलवाया। इससे सिद्ध किया जा सकता है कि नारद १०० ई० एवं ३०० ई० के बीच में हुए होंगे। नारद कहाँ के रहनेवाले थे ? इसका उत्तर देना बहुत कठिन है। कोई इन्हें नेपाली कहता है, कोई मध्यप्रदेशी । किन्तु यह सब कल्पना मात्र है। डा० भण्डारकर के मतानुसार नारद का एक नाम पिशुन भी था, जिसका उल्लेख कौटिल्य ने किया है। डा० भण्डारकर ने 'पिशुन' शब्द का, जिसका अर्थ होता है 'चुगलखोर' या 'झगड़ा लगानेवाला', जैसा कि नारद के बारे में पुराणों में प्रसिद्ध है, सहारा लेकर ऐसा मत घोषित किया है। मट्टोज ने एक ज्योतिर्नारद, रघुनन्दन ने बृहन्नारद एवं निर्णयसिन्धु तथा संस्कारकौस्तुभ ने लघु-नारद की चर्चा की है । नारदस्मृति के माष्यकार असहाय के विषय में हम ५८वें प्रकरण में पढ़ेंगे। ३७. बृहस्पति धर्मसूत्रकार बृहस्पति का वर्णन हमने प्रकरण २६ में पढ़ लिया है। यहाँ हम बृहस्पति को स्मृतिज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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