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________________ पराशर स्मृति, नारव - स्मृति ५५ देखने, वमन करने, बाल बनवाने आदि पर पवित्रीकरण; पाँच स्नान; रात्रि में कब स्नान किया जा सकता है; कौन-सी वस्तुएँ गृह में सदैव रखनी चाहिए या दिखाई पड़नी चाहिए; गोचर्म नामक भूमि की इकाई की परिभाषा; ब्रह्महत्या, सुरापान, स्वर्ण-चौर्य आदि भयानक पापों की परिशुद्धि । पराशर में कुछ विलक्षण बातं पायी जाती हैं, यथा- केवल चार प्रकार के पुत्र ( औरस, क्षेत्रज, दत्त तथा कृत्रिम ) ; यद्यपि यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि वे अन्यों को नहीं मानते। सती प्रथा की उन्होंने स्तुति की है । पराशर ने अन्य धर्मशास्त्रकारों के मतों की चर्चा की है। मनु का नाम कई बार आया है। बौधायनधर्मसूत्र की बहुत-सी बातें इस स्मृति में पायी जाती हैं। पराशर ने उशना, प्रजापति, वेद, वेदांग, धर्मशास्त्र, स्मृति आदि की स्थान-स्थान पर चर्चा की है। विश्वरूप, मिताक्षरा, अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका, हेमाद्रि आदि ने पराशर को अधिकतर उद्धृत किया है। इससे स्पष्ट है कि ९वीं शताब्दी में यह स्मृति विद्यमान थी। इसे मनु की कृति का ज्ञान था, अतः यह प्रथम शताब्दी तथा पाँचवी शताब्दी के मध्य में कभी लिखी गयी होगी। एक बृहत्पराशर संहिता भी है, जिसमें बारह अध्याय एवं ३३०० श्लोक हैं । लगता है, यह बहुत बाद की रचना है । यह पराशरस्मृति का संशोधन है। इसमें विनायक -स्तुति पायी जाती है। इस संहिता को मिताक्षरा, विश्वरूप या अपरार्क ने उद्धृत नहीं किया है। किन्तु चतुर्विंशतिमत के भाष्य में भट्टोजिदीक्षित तथा दत्तकमीमांसा में नन्द पण्डित ने इससे उद्धरण लिया है। एक अन्य पराशर - नामी स्मृति है जिसका नाम है वृद्धपराशर, जिससे अपरार्क ने उद्धरण लिया है। किन्तु यह पराशरस्मृति एवं बृहत्पराशर से भिन्न स्मृति है । एक ज्योति-पराशर भी है जिससे हेमाद्रि तथा भट्टोजिदीक्षित ने उद्धरण लिये हैं । ३६. नारद - स्मृति नारदस्मृति के छोटे एवं बड़े दो संस्करण हैं । डा० जॉली ने दोनों का सम्पादन किया है। इसके भाष्यकार हैं असहाय, जिनके भाष्य को केशवभट्ट से प्रेरणा लेकर कल्याणभट्ट ने संशोधित किया है। याज्ञवल्क्य एवं पराशर ने नारद को धर्मवक्ताओं में नहीं गिना है। किन्तु वृद्धयाज्ञवल्क्य के एक उद्धरण से विश्वरूप ने दिखलाया है कि नारद दस धर्मशास्त्रकारों में एक थे । प्रकाशित नारदीय में प्रारम्भ के ३ अध्याय न्याय - सम्बन्धी विधि ( व्यवहार - मातृका ) तथा न्याय सम्बन्धी सभा पर हैं। इसके उपरान्त निम्न बातें आती हैं-- ऋणादान ( ऋण की प्राप्ति ) ; उपनिधि ( जमा, ऋण देना, बन्धक); सम्भूयसमुत्थान ( सहकारिता ); दत्ताप्रदानिक (दान एवं उसका पुनर्ग्रहण) ; अभ्युपेत्य -अशुश्रूषा ( नौकरी के ठेके का तोड़ना); वेतनस्य - अनपाकर्म ( वेतन का न देना ) ; अस्वामिविक्रय (बिना स्वामित्व के विक्रय); विक्रीयासम्प्रदान ( बिक्री के उपरान्त न सौंपना ), क्रीतानुशय ( खरीदगी का खण्डन ); समयस्यानपाकर्म ( निगम, श्रेणी आदि की परम्पराओं का विरोध ); सीमाबन्ध ( सीमा- निर्णय ) ; स्त्रीपुंसयोग ( वैवाहिक सम्बन्ध); दायभाग ( बटवारा एवं वसीयत ) ; साहस ( बलप्रयोग से उत्पन्न अपराध, यथा हत्या, डकैती, बलात्कार आदि ) ; वाक्पारुष्य ( मानहानि एवं पिशुनवचन ) एवं दण्डपारुष्य ( विविध प्रकार की चोटें ) ; प्रकीर्णक ( मुतफर्कात दोष ) । अनुक्रमणिका में चोरी का विषय भी है, यद्यपि साहस वाले प्रकरण में कुछ आ ही गया है। उपर्युक्त अठारहों प्रकरणों में नारद ने मनुस्मृति के ढाँचे को बहुत अधिक सीमा तक ज्यों-का-त्यों ले लिया है, कहीं-कहीं नामों में कुछ अन्तर आ गया है, यथा उपनिधि (नारद) एवं निक्षेप (मनु) इसी प्रकार नामों के कुछ मेदों के रहने पर भी दोनों स्मृतियों में बहुत साम्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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