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धर्मशास्त्र का इतिहास काल-निर्णय सरल नहीं है। कुछ तो प्राचीन सूत्रों के पद्यों में संशोधन मात्र हैं, यथा शंख। कभी-कभी दो या तीन स्मृतियां एक ही नाम के साथ चलती हैं, यथा शातातप, हारीत, अत्रि। कुछ में तो पूर्णरूपेण साम्प्रदायिकता पायी जाती है, यथा हारीतस्मृति, जो वैष्णव है। कुछ स्मृतियों के प्रणेता हैं प्रमुख स्मृतिकार; किन्तु वृद्ध, बृहत् एवं लघु की उपाधियों के साथ, यथा वृद्ध-याज्ञवल्क्य, वृद्ध-गार्ग्य, वृद्ध-मनु, वृद्ध-वसिष्ठ, बृहत्-पराशर आदि।
यहाँ मनुस्मृति से आरम्भ करके हम प्रसिद्ध स्मृतियों की चर्चा करेंगे। ये सभी स्मृतियां प्रामाणिक रूप से स्वीकृत नहीं हैं। कुछ तो केवल व्याख्याओं में उल्लिखित हैं। धर्मसूत्रों को छोड़कर अधिक-से-अधिक एक दर्जन स्मृतियों के व्याख्याकार हो चुके हैं। मनुस्मृति के बाद याज्ञवल्क्य की महिमा विशेष रूप से गायी जाती है।
३१. मनुस्मृति भारतवर्ष में मनुस्मृति का सर्वप्रथम मुद्रण सन् १८१३ ई० में (कलकत्ता में) हुआ। उसके उपरान्त इसके इतने संस्करण प्रकाशित हुए कि उनका नाम देना सम्भव नहीं है। इस ग्रंथ में निर्णयसागर के संस्करण एवं कुल्लूकमट्ट की टीका का उपयोग हुआ है। मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद कई बार हो चुका है। डा० बुहलर का अनुवाद सर्वश्रेष्ठ है। उन्होंने एक विद्वत्तापूर्ण भूमिका में कतिपय समस्याओं का उद्घाटन भी किया है।
ऋग्वेद में मनु को मानव-जाति का पिता कहा गया है (ऋ० १.८०.१६, १.११४.२ २.३३. १३)। एक वैदिक कवि ने स्तुति की है ताकि वह मनु के मार्ग से च्युत न हो जाय। एक कवि ने कहा है कि मनु ने ही सर्वप्रथम यज्ञ किया (ऋ० १०.६३.७) । तैत्तिरीय संहिता एवं ताण्ड्य-महाब्राह्मण में आया है कि मनु ने जो कुछ कहा है, औषय है ("यद्व किं च मनरवदत्तद् भेषजम्",-तै० सं० २.२.१०.२; "मन यत्किचावदत्तद् भेषजं भेषजताय",-ताण्ड्य० २३.१६.१७)। प्रथम में "मानव्यो हि प्रजाः" कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता तथा ऐतरेय ब्राह्मण में मनु के विषय में एक गाथा है, जिसमें उन्होंने अपनी सम्पत्ति को अपने पुत्रों में बांटा है और अपने पुत्र नाभानेदिष्ठ को कुछ नहीं दिया है। शतपथ ब्राह्मण में मनु और प्रलय की कहानी है। निरुक्त में भी मनु स्वायंभुव के मत की चर्चा हुई है। अतः यास्क के पूर्व पद्यबद्ध स्मृतियां थीं और मनु एक व्यवहार-प्रणेता थे। गौतम, वसिष्ठ, आपस्तम्ब ने मनु का उल्लेख किया है। महाभारत में मनु को कभी केवल मनु, कभी स्वायंभुव मनु (शान्ति, २१.१२) और कभी प्राचेतस मनु (शान्ति, ५७.४३) कहा गया है। शान्तिपर्व (३३६ . ३८-४६) में आया है कि किस प्रकार भगवान् ब्रह्मा ने एक सौ सहस्र श्लोकों में धर्म पर लिखा, किस प्रकार मनु ने उन धर्मों को उद्घोषित किया और किस प्रकार उशना तथा बृहस्पति ने मनु स्वायंभुव के ग्रन्थ के आधार पर शास्त्रों का प्रणयन किया। महाभारत में एक स्थान पर विवरण कुछ भिन्न है और वहाँ मनु का नाम नहीं आया है। शान्तिपर्व (५८.८०-८५) ने बताया है कि किस प्रकार ब्रह्मा ने धर्म, अर्थ एवं काम पर एक लाख अध्याय लिखे और वह महाग्रन्थ कालान्तर में विशालाक्ष, इन्द्र, बाहुदन्तक, बृहस्पति एवं काव्य (उशना) द्वारा क्रम से १०,०००, ५,०००, ३,००० एवं १,००० अध्यायों में संक्षिप्त किया गया। नारद-स्मृति में आया है कि मनु ने १,००,००० श्लोकों, १०८० अध्यायों एवं २४ प्रकरणों में एक धर्मशास्त्र लिखा और उसे नारद को पढ़ाया, जिसने उसे १२,००० श्लोकों में संक्षिप्त किया और मार्कण्डेय को
८७. मा नः पथः पिचान्मामवादषि दूरं नष्ट परावतः। ऋग्वेद, ८.३०.३।
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