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________________ मानस-प्रश्न अन्य वम अन्य पैखानसधर्मप्रश्न में तीन प्रश्न हैं, जिनमें प्रत्येक कई खण्डों में विभाजित है। कुल मिलाकर ४१ खण है। यह पुस्तक छोटी ही है। इसकी विषयसूची यों है-(१) चारों वर्ण एवं उनके विशेषाधिकार, चारों आश्रम, ब्रह्मचारी के कर्तव्य, ब्रह्मचारियों के चार प्रकार, गृहस्थ के कर्तव्य, गृहस्थों के चार प्रकार वार्तावृत्ति (कृषि-जीविका), शालीन, यायावर एवं घोराचारिक, वन के यति लोग, वानप्रस्प या तो सपत्नीक हैं या अपत्लीक, सपत्नीक चार प्रकार के होते हैं । औदुम्बर, वैरिञ्च, वालखिल्य एवं फेनप, अपलीक वानप्रस्थ; चार प्रकार के भिक्षुषों के बारे में, यया कुटीचक, बहुदक, हंस एवं परमहंस; सकाम एवं निष्काम कर्म, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति; योगियों के तीन प्रकार एवं उनके उपविभाग; (२) वानप्रस्थ के श्रमणक नामक क्रियासंस्कारों का विस्तार (खण्ड १-४); वानप्रस्थ के कर्तव्य, संन्यासियों के सम्प्रदाय में सम्मिलित होने का विवरण (खण्ड ६-८); संन्यास के लिए अवस्था (७० वर्ष के ऊपर या संततिविहीन या पत्नी मर जाने पर); संन्यासियों के प्रतिदिन के व्रत एवं कर्तव्य; आचमन एवं संध्या के विषय में, सम्बन्धियों, पुरुष या नारी को अभिवादन, अनध्याय, स्नान एवं ब्रह्मयज्ञ, भोजन-विधि, वजित एवं अवजित .भोजन; (३) गृहस्थ के आचार-नियम (खण्ड १-३), मार्गनियम, स्वर्ण या अन्य धातु सम्बन्धी वस्तुओं का पवित्रीकरण, अन्य वस्तुओं का निर्मलीकरण, वानप्रस्थ के विषय में, भिक्षु संन्यासी की समाधि, संन्यासी की मृत्यु पर नारायणबलि, विष्णु-केशव आदि बारह नामों एवं जल के साथ संन्यासियों द्वारा तर्पण, अनुलोम एवं प्रतिलोम, बीच वाली जातियाँ, वात्य लोग, उनका उद्गम, जीविका का नाम एवं सावन (खण्ड ११-१५)। मौतम एवं बौधायन के धर्मसूत्रों की अपेक्षा वैखानसधर्मप्रश्न शैली एवं विषय-वस्तु में बाद की कृति लगता है। सम्भवतः यह प्राचीन बातों का संशोधन-मात्र है। इसमें धर्मसूत्रों एवं कुछ स्मृतियों की अपेक्षा अधिक मिश्रित जातियों के नाम आये हैं। यह कृति किसी वैष्णव द्वारा प्रणीत है। इसमें योग के स्टाम (१.१०.९), आयुर्वेद के अष्टांग एवं भूत-प्रेतों की पुस्तकों की चर्चा है (भूततन्त्र, ३.१२.७)। इसमें सदियों के लिए संन्यास वर्जित कहा गया है। धर्म-सम्बन्धी अन्य सूत्रग्रन्थ १६. अत्रि कुछ ऐसे भी धर्मसूत्र हैं, जो या तो हस्तलिखित रूप में हैं या केवल धर्मशास्त्र-सम्बन्धी पुस्तकों में यतस्ततः बिखरे पड़े हैं। इनमें सर्वप्रथम हम अत्रि को लेते हैं। मनुस्मृति से पता चलता है कि अत्रि प्राचीन धर्मशास्त्रकार थे। डेकन कालेज के संग्रह में बहुत-सी हस्तलिखित प्रतियां हैं, जिनमें आत्रय धर्मशास्त्र नौ अध्यायों में है। इन अध्यायों में दान, जप, तप का वर्णन है, जिनसे पापों से छुटकारा मिलता है, कुछ अध्याय गद्य-पद्य दोनों में हैं। प्रथम तीन अध्याय पूर्णतः श्लोकबद्ध हैं, इसके कुछ श्लोक मनुस्मृति में भी आते हैं। चौथा अध्याय एक लंबे सूत्र से प्रारम्भ होता है, जो शैली में आगे आनेवाले भाष्यों एवं टीकाओं से मिलता है। पांचवां अध्याय भी पद्ध में है और इसके कतिपय श्लोक वसिष्ठ में भी पाये जाते हैं। छठा अध्याय वेद के सूक्तों एवं पवित्रस्तोत्रों का वर्णन करता है। यहाँ भी वसिष्ठ के श्लोक हैं (२८.१०-११)। सातवां अध्याय गुप्त प्रायश्चित्तों की ओर संकेत करता है। इसमें शकों, यवनों, कम्बोजों, बालीकों, खशों, वंगों एवं पारस (पारसियों या फारस वालों) के नाम आये हैं। अपरार्क ने भी इस सूत्र का उद्धरण दिया है। सातवां एवं आठवां अध्याय गद्य-पद्य-मिश्रित हैं। ना पथ में है और योग एवं उसके अंगों का वर्णन करता है। हस्तलिखित प्रतियों में अविस्मृति या अत्रिसंहिता नामक एक अन्य ग्रन्थ मिलता है। जीवानन्द के संग्रह में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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