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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास . कौटिल्य को जड़ी-बूटियों का आश्चर्यजनक ज्ञान था। डा० जाली के मत में इस विषय का कौटिल्य का ज्ञान सुश्रुत से कहीं अधिक विस्तृत था। चरक एवं सुश्रुत के कालों के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। कौटिल्य ने 'रसद' नामक पारद-विष-व्यवहर्ता की चर्चा की है। उन्होंने 'रस' के व्यापारियों के लिए निष्कासन का दण्ड घोषित किया है, उन्होंने 'रस-विद्ध' (पारामिश्रित सोना) (२.१२), 'रसाः काञ्चनिकाः' (स्वर्णयुक्त जलीय पदार्थ) एवं "हिंयुलुक' की चर्चा की है। . कौटिलीय अर्थशास्त्र में एक महत्वपूर्ण बात है दुर्ग के बीच में देवताओं के मन्दिरों की स्थापना की चर्चा, यथा शिव, वैश्रवण, अश्विनी, लक्ष्मी एवं मदिरा (दुर्गा?) के मन्दिर। इतना ही नहीं, उन्होंने झरोखों में अपराजित, अप्रतिहत, जयन्त एवं वैजयन्त की मूर्ति स्थापना की चर्चा की है। उन्होंने ब्रह्मा, इन्द्र, यम एवं सेनापति (स्कन्द) को मुख्य द्वार के इष्टदेवताओं में गिना है। पाणिनि (५.३.९९) के महाभाष्य से पता चलता है कि 'मौर्यों ने धनलोभ से मूर्तियां स्थापित की थीं, जिनमें शिव, स्कन्द एवं विशाख की पूजा हुआ करती थी। ___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में बहुत प्राचीनता पायी जाती है। यह ई० पू० ३०० की कृति है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिए। अब तक कौटिलीय की दो व्याख्याओं का पता चल चुका है। एक है मट्टस्वामी कृत प्रतिपदपंचिका और दूसरी है माधवयज्वा की नयचन्द्रिका। दोनों बपूर्ण रूप में ही प्राप्त हैं। डा० शामशास्त्री ने अपने संस्करण में पाजत्वकृत ५७१ सूत्रों का संग्रह किया है। किन्तु इन सूत्रों का कौटिल्य से क्या सम्बन्ध है; कहना बहुत कठिन है। भारत के विभिन्न भागों में चाणक्य की बहुत-सी नीतियां प्रकाशित हुई है। निस्सन्देह ये नीतियों कौटिलीय अर्थशास्त्र के बहुत बाद की हैं और कहावतों के रूप में प्रचलित रही है। इसी प्रकार 'चाणक्य-राजनीतिशास्त्र' नामक अन्य मी कौटिल्य का नहीं है। यह राजा भोज के काल में संगृहीत हुआ था। इसी प्रकार वृक्ष-बाणक्य, लघु-चाणक्य की पुस्तकों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। कौटिलीय अर्थशास्त्र से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। १५. वैखानस-धर्मप्रश्न __ पण्डित टी० गणपति शास्त्री ने सन् १९१३ में इस ग्रन्थ का प्रकाशन किया (त्रिवेन्द्रम् संस्कृतमाला में) और सन् १९२९ में डा० एम्गर्स ने भी गाट्टिजेन में इसका प्रकाशन किया। महादेव ने सत्याषाढ-श्रौतसूत्र पर लिखित अपनी वैजयन्ती नामक व्याख्या में कृष्ण यजुर्वेद के छ: श्रौतसूत्रों, यथा बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, वाधूल एवं वैखानस की चर्चा की है और वैखानसश्रौतसूत्र के कुछ अंश कई बार उद्धृत किये हैं। शौनक के चरणव्यूह में वाधूल एवं वैखानस के नाम नहीं आये हैं। प्राचीन धर्मशास्त्रों में वैखानस नामक लेखक की ओर संकेत मिलता है। गौतम में 'वैखानस' शब्द (धर्मसूत्र ३.२) वानप्रस्थ के लिए आया है। बौधायन में भी वही सूत्र है और उसकी व्याख्या की गयी है कि वैखानस वह है जो वैखानस-शास्त्र में कथित नियमों के अनुसार चलता है (धर्मसूत्र, ६.१६)। वसिष्ठधर्मसूत्र में भी यही सूत्र है। मनुस्मृति (६.२१) ने वानप्रस्थ को वैखानस के मतों का माननेवाला कहा है (वैखानसमते स्थितः)। ८३. 'अपचहत्तयते, तम सिष्यति; शिवः स्कन्दः विशाल इति । किं कारणम् । मौर्य हिरण्याधिभिरचर्चाः प्रकल्पिताः। भवेत्तासु म स्यात् । यास्त्वताः संप्रति पूनास्तिासु भविष्यति।' महाभाष्य (५.३.९९)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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