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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास इसके उपरान्त जुहू, उपभृत् एवं ध्रुवा नामक तीन दवियों तथा स्रुव का आह्वान किया जाता है, उन्हें स्वच्छ किया जाता है और तत्सम्बन्धी विभिन्न प्रकार के कृत्य मन्त्रों के उच्चारण के साथ सम्पादित होते हैं। ५३२ पत्नी सन्नहन - यह कृत्य यजमान की पत्नी को मेखला पहनाने से सम्बन्धित है । आग्नीध्र महोदय वेद की टहनी, आज्यस्थाली, योक्त्र" तथा दो दभकुर ग्रहण करते हैं। गार्हपत्य अग्नि के दक्षिण-पश्चिम यजमान की पत्नी पंजों के बल पर बैठी रहती है, अर्थात् उसके घुटने उठे रहते हैं या खड़ी रहती है और उसे आग्नीध्र या अध्वर्यु मेखला पहनाता है । यह मेखला मूंज (योक्त्र) की होती है । आजकल पत्नी मेखला स्वयं धारण कर लेती है। आग्नीध्र या अध्वर्यु मेखला को वस्त्र के ऊपर से नहीं, प्रत्युत भीतर से पहनाता है ( आपस्तम्ब २/५/५ में विकल्प भी पाया जाता है, अर्थात् मेखला वस्त्र के ऊपर भी धारण की जा सकती है)। पत्नी खड़ी होकर गार्हपत्य अग्नि की स्तुति करती है और कहती है"हे अग्नि, तू गृह का स्वामी है, मुझे अपने निकट बुला ले।" इसी प्रकार गार्हपत्य के पश्चिम वह देवताओं की पत्नियों की स्तुति करती है और दक्षिण-पश्चिम दिशा में पुनः स्तुति करती है तथा अपने सघवापन एवं सन्ततियों के लिए अग्नि से वरदान माँगती है । आग्नीध्र वस्त्र से ढके हुए घृतपूर्ण घड़े का मुख खोलता है और कृत्य के लिए जितना चाहिए उससे कुछ अधिक घृत निकालता है और उसे दक्षिण-अग्नि पर गर्म करता है। इसके उपरान्त वह पात्रों के समूह से आज्यस्थाली ( जिसमें घृत रखा जाता है) निकालता है और उसमें दो पवित्रों को रखकर पर्याप्त मात्रा में घृत मर देता है । इस कृत्य को घृत-निर्वाण भी कहा जाता है। आग्नीध्र उस घृत को विभिन्न विधियों से गार्हपत्य के जलते अंगारों पर गर्म करता है। इसी प्रकार उस घृत को पुनीत बनाने के लिए अनेक विधियाँ हैं, जिन्हें स्थानाभाव से यहाँ वर्णित नहीं किया जा रहा है। 1 बर्हि रास्तरण -- इस कृत्य का तात्पर्य है वेदी पर कुश बिछाना । अध्वर्यु बहि के गट्ठर की गाँठ खोलकर प्रस्तर- गुच्छ को खीचता है और उस पर दो पवित्र रखता है तथा उसे ब्रह्मा को दे देता है और ब्रह्मा उसे यजमान को देता है। उसके उपरान्त अध्वर्यु वेदी पर दर्भ बिछाता है. और उस पर बहि बाँधने वाली रस्सी रख देता है । बहि रखते समय यजमान उसकी स्तुति करता है । इसी प्रकार अनेक कृत्य किये जाते हैं जिनका वर्णन आवश्यक नहीं है। इसके उपरान्त अध्वर्यु होता के लिए आसन बनाता है और वह आहवनीय के उत्तर-पूर्व में बैठता है । होता के बैठने का ढंग मी निराला होता है। वह अनेक प्रकार की स्तुतियाँ करके आसन ग्रहण करता है और अपने को पवित्र करता है। यजमान 'दश होतृ०' मन्त्रों का उच्चारण करता है ( तैत्तिरीयारण्यक ३।१) । इसके उपरान्त सामिषेनी मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है। दर्श-पूर्णमास में पन्द्रह सामिधेनी मन्त्र कहे जाते हैं जिनका आरंभ ऋग्वेद की ३।२७।१ संख्यक ऋचा से है, अर्थात् इस ऋचा के "प्र वो वाजा" में प्रत्येक को तथा अन्तिम ( आ जुहोत, ऋग्वेद ५।२८।६) को तीन बार कहा जाता है। एक ही स्वर से सब पद्यों को उच्चारित किया जाता है, अर्थात् वहाँ उदात्त, अनुदान तथा स्वरित नामक स्वरोच्चारणों पर ध्यान नहीं दिया जाता है । उच्चारण की इस विधि को एकश्रुति संज्ञा दी गयी है। प्रत्येक पद्य के अन्त में 'ओम्' कहा जाता है। होता के 'ओम्' कहने पर अध्वर्यु आहवनीय में एक समिघा डाल देता है । उस स्थिति में यजमान 'अग्नय इदं न मम' का उच्चारण करता है। ऐसा वह प्रत्येक समिघा प्रक्षेपण के साथ करता है। इस प्रकार ग्यारह समिधा डाली जाती हैं। एक को छोड़कर, जो अनुयाजों 1 १५. आज्यस्थाली वह पात्र है जिसमें दो पवित्रों को रखकर घृत रखा जाता है। योक्त्र मूंज की तीन शाखाओं वाली रस्सी है जिससे यजमान की पत्नी की कटि में मेखला (करघनी) बांधी जाती है। पत्नी मेखला पहन लेने के उपरान्त ही यज्ञ में सम्मिलित हो सकती है (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।३।३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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