________________
वर्श-पूर्णमास
५३१, जाते समय यज्ञ करनेवाला मन्त्रोच्चारण करता है। इसके उपरान्त अध्वर्यु आह्वनीय अग्नि के उत्तर दर्म घास पर जलपूर्ण पात्र रखता है और मन्त्रोच्चारण करता है और कुशों से पात्र को ढक देता है। इन कृत्यों को प्रणीताप्रणयन की संज्ञा दी गयी है। आहवनीय अग्नि के निकट जल रखते समय याज्ञिक आगे का मन्त्र पढ़ता है और सम्पूर्ण यज्ञ-भूमि पर दृष्टिपात करता है। आहवनीय अग्नि एवं प्रणीता-जल के मध्य से कोई आ-जा नहीं सकता (कात्यायन २।३।४) । प्रणीता जल का मुख्य उपयोग है पीसे हुए अन्नों (आटे) को पुरोडाश के लिए सिक्त करना, अर्थात् उससे आटा साना जाता है, जिससे पुरोडाश बनाया जाता है, जो अन्त में वेदी में डाला जाता है (जैमिनि ४१२।१४-१५)।
इसके उपरान्त निर्वाप कृत्य किया जाता है। निर्वाप का तात्पर्य है एक मुट्ठी अन्न निकालना या अन्य यशिय (यज्ञ-सम्बन्धी) सामानों का एक भाग निकालना। अध्वर्यु अपने हाथ में अग्निहोत्रहवणी ग्रहण करता है, उसे बायें हाथ में रखकर दायें हाथ में शूर्प (सूप) ग्रहण करता है। इसके उपरान्त वह दर्वी (अग्निहोत्रहवणी) को गार्हपत्य अग्नि पर गर्म करता है और कहता है---"राक्षस भस्म हो गये, शत्रु भस्म हो गये।" तब वह जल का स्पर्श करता है। इसके उपरान्त अध्वर्यु याज्ञिक से पूछता है-“हे याज्ञिक, क्या मैं यज्ञिय सामग्री निकालूं?" याज्ञिक से आज्ञा प्राप्त कर वह कहता है-"मैं बाहर जा रहा हूँ।" ऐसा कहकर अध्वर्यु आहवनीय या गार्हपत्य अग्नि के पश्चिम में खड़े शकट या लकड़ी की पेटी के पास जाता है, जिसमें चटाइयों से ढका चावल या जो रखा रहता है। वहाँ वह भांति-भांति के कृत्य करता है, जिन्हें हम स्थानाभाव के कारण यहाँ उद्धृत नहीं कर रहे हैं। विभिन्न कृत्यों के उपरान्त अध्वर्यु अन्न निकालता है। इस प्रकार अध्वर्यु के लगे रहते समय या निर्वाप करते समय याज्ञिक मन्त्र पढ़ता है-“मैं यहां अग्नि, होता, यज्ञाभिमुख देवों को बुलाता है, प्रसन्नवदन देव यहाँ आयें और मेरी आहतियां ग्रहण करें।" अध्वर्य केवल चार मट्ठी अन्न ग्रहण करता है और पुनः उस पर अर्थात् चार मुठियों वाले अन्न पर कुछ और अन्न डाल देता है। यदि गाड़ी न हो तो अन्न मिट्टी के घड़े या पात्र में रखा जा सकता है, जैसा कि आधुनिक काल में होता भी है। यही कृत्य अन्य देवों के लिए बनाये जाने वाले पुरोडाश के लिए भी किया जाता है। अन्न को स्वच्छ करने, उसे पीसने आदि के विषय में एक लम्बी विधि दी गयी है जिसे हम यहाँ स्थानसंकोच से नहीं दे पा रहे हैं। अन्न के आटे से पुरोडाश निर्मित किया जाता है और उसे विधिपूर्वक पकाया जाता है। __ आहवनीय के पश्चिम वेदी का निर्माण किया जाता है। वेदी की लम्बाई याज्ञिक की लम्बाई के बराबर या उपयोग के अनुसार होती है और उसकी गोलाकार आकृति टेढ़ी-मेढ़ी होती है। अध्वर्यु एवं यजमान (याज्ञिक) वेदी के स्थान के निरीक्षण, सफाई, निर्माण, सजावट आदि के कृत्यों में विभिन्न प्रकार के मन्त्र उच्चारण करते हैं, जिनका वर्णन यहां नहीं किया जा रहा है।
११. मन्त्र यह है-भूश्च कश्च वाक् च च गाश्च वट् च खं च धूंश्च इंश्च पूंश्चकाक्षराः पूर्वशमा विरामो याइदं विश्वं भुवनं व्यानशुस्सा नो देवीस्तरसा संविदानाः स्वस्ति यज्ञं नयत प्रजानतीः (आप० ४।४।४)।
१२. वही। १३. 'देवतार्थत्वेन पृथक्करणं निर्वापः' (आप० १।१७।१० की टीका)।
१४. जब राक्षसों के लिए किसी मन्त्र का उच्चारण किया जाता है तो अन्य कृत्य करने के पूर्व जल का स्पर्श कर लिया जाता है, देखिए-"रौद्रं राक्षसमासुरमाभिचरणिकं मन्त्रमुक्त्वा पिज्यमगत्मानं चालभ्योपस्पृशेत् । कात्यायन ॥१०॥१४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org