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धर्मशास्त्र का इतिहास जाता है)। वह मन्त्र (तै० सं० १११।४।१) के साथ अपने दोनों हाथ घोता है। गार्हपत्याग्नि से आहवनीयाग्नि तक कुशों की नोंकों को पूर्वाभिमुख करके तै० सं० के मन्त्र (३।२।४) का उच्चारण करते हुए उन्हें एक रेखा में बिछाता है। वह इस रेखा के दक्षिण एवं उत्तर में मौन रूप से कुश बिछा देता है। आहवनीय के दक्षिण कुशासन बनाये जाते हैं, जिन पर ब्रह्मा एवं यजमान बैठते हैं (ब्रह्मा यजमान के पूर्व में बैठता है)। यजमान का आसन वेदी के पूर्वदक्षिण कोने में होता है। गार्हपत्याग्नि के उत्तर कुशों को (नोंकों को पूर्व या उत्तर में करके) बिछा दिया जाता है, जिन पर जल से धोकर तथा मुखों को नीचे झुकाकर (स्पय एवं कपाल आदि) यज्ञिय पात्रों को जोड़े में रख दिया जाता है। इस कृत्य को पात्रासावन कहते हैं। 'पात्रासादन' का तात्पर्य है पात्रों को पास में रखना।
ब्रह्मवरण-अपने आसन पर उत्तराभिमख बैठकर यजमान 'ब्रह्मा' नामक पुरोहित को चनता है, जो तै० ब्रा० के मन्त्र (३७१६) के साथ पूर्वाभिमुख उत्कर के पास बैठता है। ब्रह्मा एक लम्बा मन्त्र-पाठ करता है (आप० ३।१८।४, तै० ब्रा० ३।७।६)। इसके उपरान्त वह उच्च स्वर से कहता है-“हे बृहस्पति, यज्ञ की रक्षा कीजिए" और आहवनीय के पश्चिम से वेदी को पार करता दक्षिण की ओर जाता हुआ वह अपने आसन के दक्षिण में उत्तराभिमुख हो खड़ा हो जाता है और अपने आसन के कुशों से एक कुश उठाकर दक्षिण-पश्चिम दिशा (निति, दुर्भाग्य की दिशा) में फेंकता है और कहता है-"अरे दैघिषव्य (विवाहित विधवा के पुत्र), इस स्थल से उठ और मुझसे अधिक नासमझ के यहाँ विराजमान हो" (तै० सं० २।२।४।४), तब जल स्पर्श करके पूर्वाभिमुख हो वह मन्त्र के साथ बैठ जाता है और फिर मन्त्र के साथ आहवनीय के सम्मुख हो जाता है (आप० ३।१८।४, कात्या० २।१।२४) । ब्रह्मा पुरोहित को वैदिक शास्त्रों में पारंगत होना चाहिए (ब्रह्मिष्ठ, आप० ३।१८।१) और होना चाहिए सर्वश्रेष्ठ वेदज्ञ एवं श्रोत्रिय। ब्रह्मा मन्त्रोच्चारण के समय मौन रहता है और सभी क्रियाओं एवं कृत्यों के अधीक्षक रूप में विद्यमान रहता है। अध्वर्यु उसी से आज्ञा लेकर कृत्य करता है। दर्श-र्णमास में चार पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती है। यजमान भी आहवनीय के पश्चिम से दक्षिण जाता हुआ, पूर्वाभिमुख हो अपने आसन पर कुश डालकर उस पर विराजमान हो जाता है। अध्वर्यु दो समान मोटे दर्शों को, जिनकी नोंक कटी न हो, लेकर एक बित्ते का आकार देता है और बिना नख का प्रयोग किये उनकी जड़ें काट देता है।
गार्हपत्य अग्नि के पश्चिम (या उत्तर) बैठकर अध्वर्यु चमस (चम्मच) धारण करता है, जिसमें 'दक्ष के लिए तुझको' (आप० १११७।१) के साथ जल भरा जाता है, वह उसे तीन बार जल से धोता है-एक बार मन्त्र से और दो बार मौन रूप से । मन्त्र यह है-“तू पौधों से बना है, तुझे देवों के लिए स्वच्छ किया जाता है, तू देवों के लिए चमक, तू देवों के लिए पवित्र हो जा" (आप० १११६१३)। अध्वर्यु चमस में दो पवित्र रखता है और उसमें जल भरता है और मन्त्रोच्चारण करता है (आप० १११६॥३)। उसी समय वह पृथिवी का ध्यान करता है। तब वह एक पात्र भरता है, किन्तु उसके मुख को कुछ खाली रखता है और उत्पवन की विधि से जल को पवित्र करता है। इसके उपरान्त वह देवों का आह्वान करता है (तैत्तिरीय संहिता १११।५।१) । अध्वर्यु को ब्रह्मा पुरोहित से आदेश लेना पड़ता है; "ब्रह्मन्, क्या मैं जल को आगे ले चलूं और आदेशित करूँकि हे याज्ञिक, मौन हो जाओ?" तब ब्रह्मा पुरोहित मन्त्र का उच्चारण करता है और अध्वर्यु को आदेश देता है। अध्वर्यु आदेशित हो मन्त्र पढ़ता है और जल लेकर आगे बढ़ता है। जल ले
१०. आपस्तम्ब (१।११।९) के अनुसार उत्पवन विधि यह है-उत्पवनमुदगग्राभ्यां पवित्राभ्यामूर्खपवनं शोधनमपाम् । यानिका हस्तद्वयेन गृहीत्वोत्पुनन्ति तन्मूलमन्वेष्टव्यम्।
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