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________________ पर्श-पूर्णमास के लिए रहती है, अन्य शेष को अन्तिम पद्य कहे जाने के पूर्व अग्नि में छोड़ दिया जाता है। आश्वलायन (११२।८-२२) ने इन सामिनियों के विषय में बहुत विस्तार से वर्णन किया है। इसके उपरान्त होता प्रवर ऋषियों का आवाहन करता है। इसी प्रकार वह अग्नि की स्तुति करता है, जिससे वह अन्य देवों को बुला दे, यथा अग्नि, सोम, अग्नि, प्रजापति, अग्नीषोम, घृत पीनेवाले देवों को। इस प्रकार देवताओं का आवाहन करके होता घुटनों के बल बैठ जाता है (अब तक के सारे कृत्य वह खड़ा होकर करता है), वेदी से कुश उत्तर की ओर हटा देता है और वेदी का एक बित्ता स्थल नाप लेता है तथा स्तुति करता है (आश्वलायन १।३।२२)। यजमान भी स्तुति करता है (काठक संहिता ४।१४)। यजमान अन्य विधियों के साथ आहवनीय में घृत डालता है। इस कृत्य को आधार की संज्ञा मिली है। आधार की विधि भी लम्बी-चौड़ी है, जिसे स्थानाभाव से यहाँ उद्धृत नहीं किया जा रहा है। इसी प्रकार होतृवरण एवं प्रयाजों की क्रियाएं हैं, जिन्हें हम यहाँ नहीं लिख सकते, क्योंकि उनका विशेष महत्त्व कृत्यों से है और उन्हें करके ही समझाया जा सकता है। आज्यभाग का कृत्य भी विस्तारभय से छोड़ दिया जा रहा है। उपर्युक्त कृत्यों के उपरान्त प्रमुख यज्ञ का आरम्भ होता है। अध्वर्यु होता से स्तुति करने को कहता है और वह ऋग्वेद ८।१६ से आरम्भ करता है। अध्वर्यु पुरोडाश का अंश अग्नि में डालता है। इसकी विधि भी विस्तार से भरी है, जिसका वर्णन यहाँ अनावश्यक है। इस प्रकार अग्नि, प्रजापति या विष्णु को आहुतियां दी जाती हैं। दूसरा पुरोडाश अग्नि एवं सोम को दिया जाता है। अन्य बातें विस्तारमय से छोड़ दी जा रही हैं। प्रमुख आहुतियों के उपरान्त स्विष्टकृत् अग्नि की पूजा की जाती है और उसे घृत, हवि आदि की आहुतियाँ दी जात हैं। इसी प्रकार इडापात्र" से पुरोडाश के दक्षिणी अंश का एक भाग काट लिया जाता है। इसी प्रकार अध्वर्य क्रम से पुरोडाश के पूर्वी अर्ध-भाग के एक अंश को काट लेता है। इसी प्रकार पुरोडाश के दक्षिणी एवं पूर्वी भाग के बीच से कुछ अंश काटा जाता है। इसी क्रम से अन्त में उत्तरी भाग का अंश भी ले लिया जाता है। अध्वर्यु इस प्रकार इन अंशों पर आज्य छिड़ककर वेदी के पूर्व में रख देता है। इसके उपरान्त कई एक कृत्य किये जाते हैं, जिन्हें हम यहाँ उद्धृत नहीं करेंगे। आश्वलायन (१७७) में इडोपह्वानम् (इडा के आह्वान) का विस्तार के साथ वर्णन है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इस प्रकार की स्तुति एवं आह्वान से इडा देवता यजमान के पक्ष में हो जाता है। इडा के आह्वान के उपरान्त अध्वर्यु आहवनीयाग्नि के पूर्व से प्रदक्षिणा करता हुआ प्राशिव ब्रह्मा को देता है। आश्वलायन (१।१३।२) ने ब्रह्मा के कृत्य का वर्णन विस्तार से किया है। होता अवान्तरेडा खाता है और ब्रह्मा प्राशित्र खाता है, दोनों मन्त्रोच्चारण करते हैं (आश्वलायन ११७८एवं आपस्तम्ब ३।२।१०-११ एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण ३७.५)। इसी प्रकार सभी पुरोहित अर्थात् अध्वर्यु, आग्नीध्र, ब्रह्मा, होता एवं यजमान इडा खाते हैं तथा मन्त्र पढ़ते हैं। जब तक वे मर्जन कर नहीं लेते, मौन धारण करते हैं। दक्षिणाग्नि पर पर्याप्त मात्रा में चावल पकाया जाता है। इसे अन्वाहार्य की संज्ञा दी गयी है। यजमान चारों पुरोहितों को अन्वाहार्य खाने के लिए प्रार्थना करता है। इसके उपरान्त यजमान 'सप्तहोतृ०' का जप करता है। सप्त १६. 'इडा' एक देवता का नाम है, किन्तु गौण रूप से एक कृत्य तथा यज्ञिय सामग्रियों से भी इसका सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। इस-पात्र अश्वत्थ (पीपल) की लकड़ी से निर्मित होता है। यह पात्र चार अंगुल चौड़ा तथा यजमान के पांव के बराबर लम्बा होता है, इसकी पकड़न (मूठ) चार अंगुल लम्बी होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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