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________________ वर्श-पूर्णमास "२५ पूर्णमासी के दिन प्रातःकाल यजमान अपनी स्त्री के साथ आह्निक अग्निहोत्र करने के उपरान्त गार्हपत्य के पश्चिम दर्शों पर बैठकर, अपने हाथ में कुश लेकर तथा प्राणायाम करके 'श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थ पौर्णमासेष्ट्या यक्ष्ये' (अमावस्या के दिन वह 'पौर्णमासेष्ट्या ' के स्थान पर 'दर्शष्ट्या ' कहता है) नामक संकल्प करता है। इसके उपरान्त वह अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता एवं आग्नीध्र नामक चार पुरोहितों से कहता है-“मैं आपको अपना अध्वर्यु, अपना ब्रह्मा, अपना होता एवं अपना आग्नीघ्र चुनता हूँ।" अध्वर्यु गार्हपत्य से अग्नि लेकर आहवनीय एवं दक्षिणाग्नि के पास जाता है और एक समिधा की नोंक को पूर्वाभिमुख करके आहवनीय पर रखता और मन्त्रोच्चारण करता है (ऋग्वेद १०॥ १२८११, तै० सं० ४।७।१४।१)। अध्वर्यु एवं यजमान तीन पद्यों का (शतपथ ब्रा० ११२ में वर्णित तै० ब्रा० ३७५ के पद्य) जप करते हैं। जब वह आहवनीय एवं गार्हपत्य के मध्य में रहता है तो खड़े-खड़े 'अन्तराग्नि...मनीषया' (तै० ब्रा० ३।७।४) का पाठ करता है। इसके उपरान्त वह मन्त्र के साथ (ऋ० १०।१२८१२, ते ० सं० ४।७।१४।१) गाई पत्य में समिधा डालता है। अध्वर्य एवं यजमान 'इह प्रजा...' एवं 'इह पशवः' (ले० प्रा० ३।७।४, श० ब्रा० १२२) का उच्चारण करते हैं। इसके उपरान्त अध्वर्यु दक्षिणाग्नि में 'मयि देवा' (ऋ० १०॥१२८१३४, तै० सं० ४।३।१४।१) के साथ समिधा रखता है। तब दोनों 'अयं पिताणाम्' (तै० ब्रा० ३।७४) का पाठ करते हैं। जो सभ्य एवं आवमथ्य अग्नियाँ प्रज्वलित रखते हैं, वे उनमें मन्त्रों के साथ (तै० ब्रा० ३७१४) समिधाएँ डालते हैं। __ उस यजमान को, जिसने सोमयज्ञ पहले ही कर लिया हो, शाखाहरण नामक कृत्य करना पड़ता है। उसे सान्नाम्य (ताजे दूध में खट्टा दूध या पिछली रात्रि के दूध का दही मिलाने से बना हुआ पदार्थ) देना पड़ता है। ते० सं० (२।५।४।१) के मत से केवल सोमयाजी ही सान्नाय्य देता है। इन्द्र या महेन्द्र को भी सानाय्य दिया गया था (शतपथ ब्रा० १०६।४।२१ एवं कात्या० ४।२३१०) । ते ० सं० (२।५।४।४) के मत से केवल गतश्री महेन्द्र को सान्नाय्य दे सकता है, किन्तु शत० ब्रा० (११४) के अनुसार सोमयाग के उपरान्त एक या दो वर्षों तक इन्द्र एवं महेन्द्र को सान्नाय्य दिया जाना चाहिए। पूर्णमासी की इष्टि में अग्नि एवं अग्नीषोम को पुरोडाश (रोटी) दिया जाता है और इसमें दो पुरोडाशों के साथ मौन रूप से प्रजापति को आज्य दिया जाता है। दर्श की इष्टि में पुरोडाश के देवता हैं अग्नि एवं इन्द्राग्नी तथा सानाय्य इन्द्र या महेन्द्र को दिया जाता है (आश्व० ११३।९-१२)। शाखाहरण--यह कृत्य केवल उसी से सम्बन्धित है जिसने केवल दर्शष्टि और सोमयज्ञ कर लिया हो। अध्वर्य पलाश या समी वृक्ष की एसी डाल से नयी शाखा लाता है जो कहीं से सूखी न हो और जिसमें अधिक संख्या में पत्तियां हुई वस्तु), सरस्थान को १२ घट-शकलों पर पकायी गयी रोटी तथा अग्नि भगिन् को ८ घट-शकलों पर पकायी गयी रोटी दी जाती है। जैमिनि (९।१।३४-३५) के मतानुसार अन्यारम्भणीया प्रति बार नहीं की जाती, केवल एक बार इसका सम्पादन पर्याप्त है। अन्य विस्तारों के लिए देखिए तै० सं० (३१५।१), आश्व० (२३८), आप० (५।२३।४-९), बोषा० (२२२१)। ३. सामान्यतः मन्त्रोच्चारण 'ओम्' से आरम्भ किया जाता है। किन्तु श्रौत कृत्यों में यह कोई नियम नहीं है और इसी से श्रौत सूत्रों में इसका उल्लेख भी कहीं नहीं हुआ है। यजमान एवं अध्वर्यु दोनों में से कोई भी समिषा गल सकता है (कात्या० २।११२)। ४. गतश्री लोग तीनों अग्नियों को सवा रखते हैं (कात्या० ४।१३।५ एवं आप० ६।२१२)। वे लोग पूर्व रूपेण पढ़े-लिखे एवं पण्डित ब्राह्मण, विजयी क्षत्रिय एवं ग्राम के सबसे बड़े वैश्य होते हैं-"गतश्रिभिस्तु सर्वेऽग्नयः सवा पार्यन्ते। त्रयो ह वै गतश्रियः शुश्रुवान् ब्राह्मणः क्षत्रियो विजयी राजा वैश्यो ग्रामणीरिति" (कात्या० ४.१३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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