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________________ अध्याय ३० दर्श- पूर्णमास सभी इष्टियों (ऐसे यज्ञ जिनमें पशु बलि दी जाती है) की प्रकृति पर दर्श-पूर्णमास नामक यज्ञ के वर्णन एवं व्याख्या से प्रकाश पड़ जाता है। इसी से सभी श्रौत सूत्र सर्व प्रथम दर्शपूर्णमास का वर्णन विस्तार से करते हैं, यों तो क्रम के अनुसार अग्न्याधान का स्थान सर्वप्रथम है। आश्व० (२।१।१) का कहना है कि सभी प्रकार की इष्टियों पर पौणुमास इष्टि के विवेचन से प्रकाश पड़ जाता है। आप० ( ३|१४|११ -१३ ) के अनुसार तीनों अग्नियों (गार्हपत्य, आहवनीय एवं दक्षिणाग्नि) की प्रतिष्ठापना के उपरान्त प्रतिष्ठापक को दर्शपूर्णमास का सम्पादन जीवन भर (या जब तक संन्यासी न हो जाय ) या ३० वर्षों तक या जब तक बहुत जीर्ण (कृत्य करने में पूर्णरूपेण अयोग्य) न हो जाय, करते जाना चाहिए।' 'अमावस्या' शब्द का अर्थ है 'वह दिन जब ( सूर्य एवं चन्द्र ) साथ रहें ।' यह वह तिथि है, जिस दिन सूर्य एवं चन्द्र एक दूसरे के बहुत पास ( अर्थात् न्यूनतम दूरी पर ) रहते हैं। 'पूर्णमासी' वह तिथि है, जिस दिन सूर्य एवं चन्द्र एक-दूसरे से अधिकतम दूरी पर रहते हैं । 'पूर्णमास' का तात्पर्य है 'वह क्षण जब कि चन्द्र पूर्ण ( पूरा या भरपूर ) रहता है ।' 'दर्श' का तात्पर्य वही है जो 'अमावस्या' का है। दर्श का अर्थ है 'वह दिन जब चन्द्र को केवल सूर्य ही देख सकता है और अन्य कोई नहीं ।' 'दर्श' एवं 'पूर्ण मास' के गौण अर्थ हैं 'वे कृत्य जो क्रम से अमावस्या एवं पूर्णमासी के दिन सम्पादित होते हैं ।' 'इष्टि' का तात्पर्य उस यज्ञ से है जिसमें यजमान चार पुरोहितों को नियुक्त करता है। नीचे हम सत्याषाढ एवं आश्वलायन के श्रौतसूत्रों पर आधारित दर्श- पूर्ण मास - सम्बन्धी विवेचन उपस्थित करेंगे । अग्न्याधेय कर चुकनेवाला आगे की प्रथम पूर्णमासी को दर्श- पूर्णमास का सम्पादन कर सकता है। पूर्णमासी के दिन की इष्टि दो दिन हो सकती है, किन्तु सारे कृत्य संक्षिप्त कर एक ही दिन में सम्पादित हो सकते हैं। यदि दो दिनों तक कृत्य किये जायें, तो वे प्रथम दिन (पूर्णमासी के दिन ) तथा प्रतिपदा ( पूर्णमासी के आगे के कृष्ण पक्ष के प्रथम दिन ) तक समाप्त हो जाते हैं; प्रथन दिन को उपवसय दिन तथा दूसरे दिन को यजनीय दिन कहा जाता है। पूर्णमास कृत्य के सिलसिले में उपवसथ के दिन अग्न्यन्वाधान ( अग्नि में ईंधन डालना) एवं परिस्तरण कृत्य किये जाते हैं और शेष कृत्य यजनीय दिन में सम्पादित होते हैं । यदि प्रारंभिक पूर्णमास इष्टि या दर्श इष्टि हो तो यजमान hat अन्वारम्भणीया इष्टि सम्पादित करनी पड़ती है, जिसे नीचे पाद-टिप्तणी में पढ़िए । १. 'यावज्जीवं दर्शपूर्ण मासाभ्यां यजेत' - जैमिनि ( १०/८/३६ ) की श्यामा में शबर द्वारा उद्धृत | और देखिए श० ब्रा० (११।१२।१३), जहाँ ३० वर्षों की चर्चा है। 'ताभ्यां यावज्जीवं यजेत । त्रिशतं वा वर्षाणि । जीर्णो वा विरमेत्।' आप० (३ | १४|११-१३) । २. सर्वप्रथम तै० सं० ( ३।५।१।१) के मन्त्रों के साथ सरस्वती को दो आहुतियां दी जाती हैं और तब अन्वारम्भणीया का सम्पादन होता है। इसमें अग्नि एवं विष्णु को ११ कपालों (घट-शकलों, मिट्टी के कसोरों या भिन्न पात्रों) में पकायी गयी रोटी दी जाती है। सरस्वती को चरु (एक साथ चावल, जौ, दूध आदि उबालकर बनायी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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