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धर्मशास्त्र का इतिहास हों। शाखा वृक्ष की पूर्व, उत्तर या उत्तर-पूर्व दिशा से ली जाती है (जैमिनि ४।२७)। वह उसे 'इषे त्या' (ते. सं० १२१११११) शब्दों के साथ काटता है, जल-स्पर्श करता है और 'ऊर्जे त्वा' (ले० सं० १२१३०१) के साथ शाखा को सीधी करता है या स्वच्छ करता है। इसके उपरान्त वह उस शाखा को 'इयं प्राची' (ले० प्रा० ३।४।७) के साथ यज्ञ-स्थल पर लाता है। इस शाखा द्वारा वह छः बछड़ों को उनकी माताओं (गायों) से पृथक् करता है (तै० सं०१११११११)। अध्वर्यु यजमान की गायों को तै० सं० के मन्त्र (१।१।१।१) के साथ चरने को छोड़ देता है, जब वे चल देती हैं तो उन्हें पुकारता है (ऋ० ६।२८।७, ते० प्रा० २।८।८)। तब वह यजमान के घर लौट आता है और शाखा को परिचित स्थल पर (जिससे वह मुलायी न जा सके) या यज्ञ-स्थल पर या अग्नियों के पास काठ के बने धेरे (कठघरे) में रख देता है। जैमिनि (३।६।२८-२९) का कहना है कि शाखाहरण प्रातः एवं सायं दोनों समयों में गाय के दुहे जाने से सम्बन्धित है।
यजमान आहवनीय के पश्चिम से जाकर उसके दक्षिण में हो जाता है और आचमन करता है। तब वह सागर का ध्यान करता है और अग्नि, वायु, आदित्य एवं व्रतपति की पूजा करता है (ले० सं० ११५।१०।३ एवं ते० प्रा० ३२७४)।
बहिराहरण-इस कृत्य का तात्पर्य है प्रयोग में लाने के लिए पवित्र कुशों की पूलियां लाना। इस कृत्य के कई स्तर हैं जिनमें प्रत्येक के अपने विशिष्ट मन्त्र हैं। सभी मन्त्र छोटे-छोटे गद्यात्मक सूत्र हैं जो तै० सं० में पाये जाते हैं (१।१।२)। उन्हें हम स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं दे रहे हैं। कतिपय स्तर निम्न हैं-अध्वर्यु हँसिया या घोड़े या बैल की छाती की एक हड्डी लेता है जो गार्हपत्य के उत्तर रखी रहती है और मन्त्रोच्चारण करता है। साथ साथ वह गार्हपत्य की स्तुति करता है। हँसिया (हड्डी नहीं) गार्हपत्य में गर्म कर ली जाती है, तब वह विहार (यज्ञ-स्थल) के उत्तर या पूर्व कुछ दूर जाता है और कुश-स्थल का चुनाव करता है, एक दर्भ-गुच्छ के स्थल को छोड़कर आवश्यकता के अनुसार अन्य स्थलों पर चिह्न बना देता है। "इसे पशुओं के लिए छोड़ रहा हूँ" और "इसे देवों के लिए काट रहा हूँ" कहकर वह अपने बायें हाथ की अंगुलियों में कुश को दबाकर मन्त्रों के साथ हँसिया से काट लेता है। इन प्रथम मुट्ठी भर कुशों को प्रस्तर कहा जाता है। इसके उपरान्त वह विषम संख्या में कई मुठियों में कुश काट लेता है (३,५,७,९, ११)। प्रत्येक मुट्ठी के साथ पूर्ववत् कृत्य किये जाते हैं और अध्वर्यु कहता है-“हे बहि देवता, तुम सैकड़ों शाखाओं में होकर उगो।" वह अपने हृदय-स्थल को छूकर कहता है--"हम भी सहस्रों शाखाओं में बढ़ें।" वह जलस्पर्श करके एक शुल्व (रस्सी) में मुट्ठी भर दर्भ बायें से दाहिने रखता है और उन पर अन्य ३ या ५ कुश-पूलियों को रखता है और रस्सी (शुल्व) से बाँध देता है। पूलियों की नोंकें उत्तर या पूर्व पृथ्वी पर रखी जाती हैं। इस प्रकार एक बड़ा गट्ठर बना लिया जाता है और उसके ऊपर प्रस्तर रखा जाता है। सारा गट्ठर पुनः कसकर बांध दिया जाता है। अध्वर्यु उसी मार्ग से गट्ठर यज्ञ-स्थल में लाकर वेदी पर कुश के ऊपर (खुली पृथिवी पर नहीं) मध्य परिषि वाले स्थल के पास ही उसे रख देता है। वह बर्हि को इस प्रकार रखकर मन्त्रोच्चारण करता है और गार्हपत्य के पास एक चटाई या उसी के समान किसी अन्य वस्तु पर उसे रख देता है। अध्वर्यु मौन रूप से बहि के साथ अन्य दर्शों को, जिन्हें परिभोजनीय कहा जाता है, लाता है। वह इसी प्रकार शुष्क कुश (उलपराजि) मी लाता है।
इध्माहरण-इस कृत्य का तात्पर्य है ईंधन लाना । पलाश या खादिर की २१ समिधाओं की आवश्यकता पड़ती
५. परिभोजनीय दर्भो से पुरोहितों, यजमान एवं यजमानपत्नी के लिए आसन बनाये जाते हैं। देखिए ऐतरेय ब्राह्मण का हॉग-कृत अनुवाद, पृ० ७९, जिसमें बर्हि, परिभोजनीय एवं वेद पर टिप्पणियों की हुई हैं।
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