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धर्मशास्त्र का इतिहास
प्राचीन काल में किये जाने वाले यज्ञों का वर्णन श्रौतसूत्रों में विशद रूप से पाया जाता है। श्रौतसूत्र तो वैदिक यज्ञ करने वालों के लिए मानो व्यावहारिक चर्चाएँ या पद्धतियाँ मात्र हैं और उनमें प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों के उद्धरण पर्याप्त मात्रा एवं संख्या में पाये जाते हैं । हम यहाँ केवल कुछ ही वैदिक यज्ञों का वर्णन उपस्थित करेंगे और वह भी संक्षेप में, क्योंकि हमारा उद्देश्य है केवल उनके रूप का परिदर्शन मात्र करा देना । हम यहाँ आश्वलायन, आपस्तम्ब, कात्यायन, बौधायन एवं सत्याषाढ के श्रौतसूत्रों के आधार पर ही अपना विवेचन उपस्थित करेंगे, कहीं कहीं संहिताओं एवं ब्राह्मणों की ओर भी संकेत किया जाता रहेगा । स्थानाभाव के कारण हम सूत्रों के परस्पर विभेदों, पद्धतियों के अन्तरों एवं आधुनिक व्यवहारों की चर्चा करने में संकोच करेंगे। वाराणसी से नागेश्वर शास्त्री ने " श्रौतपदार्थनिर्वचन" नामक एक संग्रह प्रकाशित किया है, जो कई अर्थों में बड़ा उपयोगी है, किन्तु अभांग्यवश संग्रहकर्ता ने जो उद्धरण दिये हैं उनका स्थल- संकेत नहीं दिया, अर्थात् यह नहीं लिखा कि ये उद्धरण किस श्रौतसूत्र में कहाँ पर हैं। पूना के मीमांसा - विद्यालय ने वैदिक यज्ञों के काम आनेवाले पात्रों के नामों की सूची बनायी है और पात्रों एवं वेदियों के चित्र एवं मानचित्र उपस्थित किये हैं। इस अध्याय में चातुर्मास्यों, पशुबन्ध, ज्योतिष्टोम का वर्णन एवं दर्श - पूर्णमास का विवेचन भी विस्तार से किया जायगा तथा अन्य यज्ञ संक्षिप्त रूप से वर्णित होंगे।
ऋग्वेद में श्री यज्ञ
जिन दिनों ऋग्वेद के मन्त्रों का प्रणयन एवं संग्रह हो रहा था, उन्हीं दिनों यज्ञों के प्रमुख प्रकार (लक्षण) भी प्रकट होते जा रहे थे । तीन अग्नियाँ प्रकट हो चुकी थीं। ऋग्वेद (२०३६१४ ) में अग्नि को तीन स्थानों पर बैठने को कहा गया है। ऋग्वेद (१।१५।४ एवं ५/२/२ ) में यह भी आया है-मनुष्य तीन स्थानों पर अग्नि प्रज्वलित करते हैं। ऋग्वेद (१।१५।१२ ) में 'गार्हपत्य' नामक अग्नि का नाम भी आ गया है। ऋग्वेद में तीन सवनों (प्रातः, मध्याह्न एवं सायं में सोम का रस निकालने ) का वर्णन आया है, में प्रातः सवन, ३२२८१४ में माध्यन्दिन सवन, ३।२८।५ में तृतीय सवन । ऋग्वेद के
३|२८|१
यथा-३।५२।५-६ एवं ४।१२।१
आया है कि सभी दिनों में यज्ञ द्वारा अग्नि को तीन बार भोजन मिलता है। और भी देखिए ऋग्वेद ( ४१३३।११ ) । सोमयज्ञ में कार्य करने के लिए १६ पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती है। सम्भवतः इनके सभी विविध नाम ऋग्वेद
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२ श्रौत यज्ञों में 'आहवनीय', 'गार्हपत्य' एवं 'दक्षिणाग्नि' नामक तीन अग्नियाँ प्रज्वलित की जाती हैं। ३. सोलह पुरोहित या ऋत्विक् ये हैं- ' होता मंत्रावरुणोऽच्छावाको ग्रावस्तुदध्वर्युः प्रतिप्रस्थाता नेष्टोता ब्रह्मा ब्राह्मणाच्छंस्याग्नीध्रः पोतोद्गाता प्रस्तोता प्रतिहर्ता सुब्रह्मण्य इति ।' आश्वलायनश्रौतसूत्र ४।११६, आपस्तम्बश्रौतसूत्र १०।१।९ । इनमें होता, अध्वर्युं ब्रह्मा एवं उद्गाता चार प्रमुख पुरोहित हैं और उपर्युक्त सूची में इन चारों में प्रत्येक के आगे के तीन पुरोहित उसके सहायक होते हैं। इस प्रकार कुल १२ पुरोहित सहायक हुए। चारों प्रमुख ऋत्विों के कार्य ऋग्वेद (१०।७१।११) में वर्णित हैं। ऋग्वेद ( २।४३।१ ) में हमें सामों (सामवेद के मन्त्रों) के गायक की चर्चा मिलती है। अग्निहोत्र में केवल अध्वर्यु की आवश्यकता पड़ती है। अग्न्याधेय, वर्श-पूर्णमास एवं अन्य इष्टियों में चार पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती है, यथा---अध्वर्यु, आग्नीध्र, होता एवं ब्रह्मा । चातुर्मास्यों में पाँच पुरोहितों की, यथा दर्शपूर्णमास के चार पुरोहित तथा प्रतिप्रस्थाता । पशुबन्धयज्ञ में मंत्रावरुण नामक एक छठा पुरोहित भी रहता है । सोम यज्ञों में सभी १६ पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती है। साकमेध नामक चातुर्मास्य में आग्नीध्र को 'ब्रह्मपुत्र' (देखिए आश्व० श्र० २।१८।१२) नाम से सम्बोधित किया जाता है। पुरोहितों की आवश्यक संख्या के विषय में देखिए तैत्तिरीय ब्राह्मण (२।३।६) एवं बौधा ० ० (२३) । कुछ लोगों ने एक सत्रहवां पुरोहित
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