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________________ मोब ५०९ वैदिक अग्निष्टोम एवं पारसियों के होम में बहुत-कुछ समता है। पारसियों की प्राचीन धार्मिक पुस्तकों एवं वैदिक साहित्य में प्रयुक्त यज्ञ-सम्बन्धी शब्दों में जो सादृश्य दिखाई पड़ता है, उससे प्रकट होता है. कि यज्ञ-सम्बन्धी परम्पराएं बहुत प्राचीन हैं, यथा--- अथर्वन्, आहुति, उक्थ, बर्हिस्, मन्त्र, यश, सोम, सवन, स्टोम, होतृ आदि शब्द प्राचीन पारसी - साहित्य में पाये जाते हैं। यद्यपि वैदिक यज्ञ आजकल बहुत कम किये जाते हैं. (दर्श- पूर्णमास एवं चातुर्मास्य को छोड़कर), किन्तु वे ईसा से कई शताब्दियों पूर्व बहुत प्रचलित थे । बौद्ध धर्म की स्थापना एवं प्रसार के कई शताब्दियों उपरान्त भी ये यज्ञ यथावत् चलते रहे हैं, जैसा कि शिलालेखों में वर्णित राजाओं द्वारा किये गये यज्ञों से पता चलता है। हरिवंश ( ३।२।३९-४०), मालविकाग्निमित्र (अंक ५, जिसमें राजसूय का वर्णन है ), अयोध्या के शुंगामिलेख (एपिफिया इण्डिका, जिल्द २०, पृ० ५४ ) में सेनापति पुष्पमित्र द्वारा कृत अश्वमेघ ( या राजसूय यज्ञ का वर्णन मिलता है। हाथीगुम्फा अभिलेख (एपिफिया इण्डिका, जिल्द २०, पृ० ७९) में राजा खारवेल द्वारा किये गये राजसूय यज्ञ का वर्णन मिलता है। समुद्रगुप्त ने भी अश्वमेघ यज्ञ किया था, जैसा कि कुमारगुप्त के बिलसद अभिलेख से पता चलता है (गुप्त इंस्क्रिप्शंस, पृष्ठ ४३) । पर्दी दानपत्र में कूटक राजा दहसेन को अश्वमेघ यज्ञ करने वाला कहा गया है (एपिफिया इण्डिका, जिल्द १०, पृ० ५३ ) । पीकिर दानपत्र में पल्लव राजा अश्वमेष यज्ञ करने वाले तथा एक अन्य दानपत्र में अग्निष्टोम, वाजपेय एवं अश्वमेघ नामक यज्ञ करने वाले कहे गये हैं (एपिफिया इण्डिका, जिल्द १, पृ० २ ) । वाकाटक राजा प्रवरसेन द्वितीय (गुप्त इंस्क्रिप्शंस, संख्या ५५, पृ० २३६ ) के छम्मक दानपत्र में प्रवरसेन प्रथम बहुत से श्रौत यज्ञ करने वाला घोषित किया गया है। अग्नि-पूजा मूल रूप में व्यक्तिगत एवं जातीय या वर्गीय रही होगी। आह्निक अग्निहोत्र व्यक्तिगत कृत्य था; किन्तु दर्श- पूर्णमास के समान सरल इष्टियों में चार पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती थी। सोमयज्ञ में १६ पुरोहितों एवं अन्य बहुमूल्य वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती थी और इस प्रकार के यज्ञा म बहुत-से लाग आत ये तथा उनका स्वरूप कुछ सामाजिक था। आरम्भिक काल में अग्निहोत्री लोग कम ही रहे हांग, क्योंकि ब्राह्मण लोग अपेक्षाकृत निर्धन होते हैं और अग्निहोत्री होने से उन्हें घर पर ही रहना पड़ता तथा जीविका कमाने में गड़बड़ी होती थी । मध्यम वय प्राप्त हो जाने पर ही ब्राह्मणों के लिए अग्न्याधान की व्यवस्था थी ( जैमिनि १ । ३ । ३ की व्याख्या में शबर ) । आह्निक अग्निहोत्र के लिए सैकड़ों कंडों (गाय के गोबर से बने उपलों) एवं समिधाओं के अतिरिक्त कम से कम दो गायों की परम आवश्यकता होती थी । अग्निहोत्र की व्यवस्था के लिए तथा दर्श- पूर्णमास ( जिसमें चार पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती है) एवं चातुर्मास्य ( जिसमें पाँच पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती है) करने के लिए धनवान् होना आवश्यक है । सोमयज्ञ तो केवल राजाओं, सामन्तों, घनी व्यक्तियों के या जो अधिक धन एकत्र कर सके उसी के बूते की बात थी । राजाओं ने दानपत्रों में स्पष्ट लिखा है कि ब्राह्मण इस दान से बलि, चरु देगा तथा अग्निहोत्र करेगा ( यथा बुद्धराज सन्नी दानपत्र, सन् ६०९-१० ई०, दामोदरपुर दानपत्र, सन् ४४७-४८ ई० ) । मुसलमानों के समय में बादशाहों से ऐसें दान नहीं प्राप्त हो सकते थे, अतः वैदिक यज्ञों की परम्पराएँ समाप्त सी हो गयीं । हाल के लगभग सौ वर्षों के भीतर वैदिक यज्ञ बहुत ही कम किये गये हैं। ऋग्वेद (१०१९०११६) ने यज्ञों को प्रथम धर्मो अर्थात् कर्तव्यों में गिना है और धर्मशास्त्र जैसे विषय से सम्बन्धित ग्रन्थ में उनकी चर्चा होनी चाहिए। अतः संक्षेप में, हम यहाँ वैदिक यज्ञों का वर्णन करेंगे i १. देखिए एपिफिया इण्डिका, जिल्द ६, पृ० २९१, 'बलिवैश्वदेवाग्निहोत्रादिक्रियोत्सर्पणार्थम्' (सर्सनी पत्र); वही, जिल्द १५, पृ० ११३ 'अग्निहोत्रोपयोगाय' ( पृ० १३०), 'पञ्चमहायज्ञप्रवर्तनाथ' ( पृ० १३३), 'बलिचर सत्रप्रवर्तनगव्यषूपपुष्पमधुपर्कदीपाद्युपयोगाय' ( पृ० १४३ ) -- दामोदरपुर दानपत्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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