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________________ भौता में प्राप्त हो जाते हैं, यथा ऋग्वेद (१३१६२।५) में होता, अध्वर्यु, अग्निमिन्ष (अग्नीत् या आग्नीध्र), ग्रावग्राम, (ग्रावस्तुत्), शंस्ता (प्रशास्ता या मैत्रावरुण), सुविप्र (ब्रह्मा?); ऋग्वेद (२०१२) में होता, नेष्टा. अग्नीत्, प्रशास्ता (मैत्रावरुण), अध्वर्य, ब्रह्मा; ऋग्वेद (२।३६) में होता, पोता (२), आग्नीध्र (४), ब्राह्मण (ब्राह्मणाच्छंसी), एवं प्रशास्ता (६)। ऋग्वेद (२॥४३॥२) में उद्गाता का नाम आया है। ऋग्वेद (३॥१०॥४, ९।१०।७, १०॥३५।१०, १०।६१।१) में सात होताओं की चर्चा हुई है, और ऋग्वेद (२।५।२) में पोता को आठवां पुरोहित कहा गया है। ऋग्वेद में 'पुरोहित' शब्द अनेक बार आया है. (१।११, ११४४।१० एवं १२, ३।२।८, ९।६६।२०, १०. ९८७) । ऋग्वेद ने अतिरात्र (७.१०३।७), त्रिकद्रुक (२।२२।१, ८।१३।१८, ८।९।२१, १०।१४।१६) के नाम लिये हैं। ऋग्वेद (१११ ६२२६) में यूप (जिसमें बलि का पशु बाँधा जाता था) एवं उसके शीर्षभाग चषाल का वर्णन आया है। ग्वेद का ३३८ वाला अंश यूप की प्रशंसा से भरा पड़ा है। जिस व्यक्ति ने यज्ञ के पशु को मारा (शमिता) उसका वर्णन ऋग्वेद (११६२।१० एवं ५।४३४) में हुआ है। धर्म (प्रवर्दी कृत्य के लिए उबले हुए दूध के पात्र या सम्भवतः माध्यन्दिन सवन में दधिधर्म) का उल्लेख ऋग्वेद (३१५३।१४, ५।३०।१५, ५।४३१७) में हुआ है। ऐसा विश्वास था कि यज्ञ में बलि किया हुआ पशु स्वर्ग में चला जाता है (ऋग्वेद १११६२।२१, १६१६३।१३)। दो अरणियों के घर्षण से यज्ञाग्नि उत्पन्न की जाती थी (ऋग्वेद ३।२९।१-३, ५।९।३, ६।४८।५)। दर्वी (ऋक् ५।६।९), सुक् (ऋ० ४।१२।१, ६॥२१५), जुहू (ऋ० १०।२१॥३) का उल्लेख हुआ है। दोनों की प्रशंसा में भी ऋग्वेद में मन्त्र आये हैं (ऋ० १११२६१३, ८।५।३७)। ऋग्वेद (३१५३१३) में होता (आहाव) का आह्वान तथा अध्वर्यु (प्रतिगर) द्वारा स्वीकृति का उत्तर स्पष्ट रूप से वर्णित है। ऋग्वेद (१०।११४१५)में सोम के बारहों ग्रहों (पात्रों या कलशों) का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद (१।२८।१-२) में चौड़ी सतह वाले पत्थर (पावा) का, जिस पर सोम के डण्ठल कूटे जाते थे, वर्णन है। इसी प्रकार खल का, जिसमें सोम का चूर्ण बनाया जाता था, तथा अधिषवण का, जिस पर सोम का रस निकाला जाता था। सोम पीने के उपयोग में आने वाले चमस (चम्मच) नामक पात्र का भी उल्लेख हुआ है (ऋ० १०२०।६, ११११०१३, १३१६१११ एवं ८१३२१७)। सोमयज्ञ के अन्त में किये जाने वाले अवमूथ स्नान की चर्चा ऋग्वेद (८१९३।२३) में हुई है। ऋग्वेद के दस आप्री मन्त्रों से पता चलता है कि श्रोत सूत्रों में वर्णित पशु-यज्ञ के बहुत से लक्षण उस समय प्रचलित हो गये थे। श्रौतकृत्यों के कुछ सामान्य नियम-आगे कुछ लिखने के पूर्व श्रौत कृत्यों के कुछ सामान्य नियमों की जानकारी करा देना आवश्यक प्रतीत होता है। इस विषय में आश्वलायनश्रौतसूत्र (१।११८-२२) पठनीय है। जब तक कहा न जाय, याज्ञिक को सदैव उत्तराभिमुख रहना चाहिए, पल्थी मारकर (व्यत्यस्तपाद अर्थात् एक पैर को दूसरे के साथ मोड़कर) बैठना चाहिए, और यज्ञिय उपकरणों (यज्ञ के उपयोग में आने वाली सामग्री, यथा कुश आदि) को पूर्वामिमुख करके रखना चाहिए। जब तक निवीत या प्राचीनावीत ढंग से पहनने को न कहा जाय तब तक यज्ञोपवीत को उपवीत ढंग से पहने रहना चाहिए। जब तक किसी अन्य शरीरांग का नाम न लिया जाय दाहिने अंगों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए (यथा हाथ, पैर, अंगुली) । जब 'ददाति' शब्द कहा जाय तो इसे यजमान (याज्ञिक) के लिए ही प्रयुक्त समझना चाहिए। कात्यायनश्रौतसूत्र (१।१०।१२) के मतानुसार 'वाचयति' शब्द का संकेत है यजमान की भी जोर दिया है, यथा सदस्य।बी० (२॥३) ने तो उसे तीन सहायक पुरोहित भी दे दिये हैं, किन्तु शतपय ब्राह्मण (१०।४।२।१९) ने सत्रहवें पुरोहित की नियुक्ति को वर्जित माना है। यज्ञ में ऋत्विकों के अतिरिक्त कुछ अन्य लोग भी होते हैं, यथा शमिता, बमसाध्वर्यु। आप० बी० (११३-६) में त्रिकबुक कोज्योतिः, गौः एवं आयुः कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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