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________________ शिष्ट-परिषद् और धर्मनिर्णय ५०५ पनिषद् के भाष्य में लिखा है-“अतः धर्म के सूक्ष्म निर्णय में किसी परिषद् का होना आवश्यक है तथा विशेष रूप से किसी प्रसिद्ध व्यक्ति का निर्णय आवश्यक है, जैसा कि नियम भी है-एक परिषद् में कम-से-कम दस या तीन या एक विशिष्ट व्यक्ति का होना परमावश्यक है।"" शंकराचार्य की उपर्युक्त उक्ति से स्पष्ट होता है कि उनसे लगभग १५०० वर्ष पहले परिषदों की परम्पराएँ विद्यमान थी, जो धर्म एवं आचार-सम्बन्धी निर्णय दिया करती थीं। परिषद् में कितने व्यक्ति होने चाहिए और उनकी योग्यता कितनी होनी चाहिए? इस विषय में गौतम (२८) ४६-४७) के अनुसार परिषद् में कम-से-कम दस व्यक्ति होने चाहिए, यथा-चार वेदज्ञ, एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी, एक गृहस्थ, एक संन्यासी तथा तीन धर्मशास्त्रज्ञ। वसिष्ठधर्म० (३।२०), बौधायन० (१३१३८), पराशर (८।२७) एवं अंगिरा ने घोषित किया है कि परिषद् में दस व्यक्ति होने चाहिए, यथा-चार वेदज्ञ, एक मीमांसक, एक षड्वेदांगश, एक धर्मशास्त्रज्ञ, तीन अन्य व्यक्ति, जिनमें एक गृहस्थ, एक वानप्रस्थ एवं एक संन्यासी हो । मनु (१२।१११) के मत से दस पार्षद ये हैं-तीन वेदज्ञ (एक-एक वेद को जाननेवाले, अथर्ववेद को छोड़कर), एक तर्कशास्त्री, एक मीमांसक, एक निरुक्तज्ञ, एक धर्मशास्त्रज्ञ, एकं गृहस्थ, एक वानप्रस्थ तथा एक संन्यासी। पराशरमाधवीय (२।१, पृ० २१८) द्वारा उद्धृत बृहस्पति के अनुसार एक परिषद् में ७ या ५ व्यक्ति बैठ सकते हैं, जिनमें प्रत्येक को वेदज्ञ, वेदांगज्ञ, धर्मशास्त्रज्ञ होना चाहिए। इस प्रकार की परिषद् पवित्र एवं यज्ञ के समान मानी जाती है (और देखिए अपरार्क, पृ० २३)। वसिष्ठधर्मसूत्र (३७), याज्ञवल्क्य (११९), मनु (१२।११२), पराशर (८.११) के अनुसार परिषद् में कम-से-कम ४-या ३ व्यक्ति होने चाहिए, जिनमें प्रत्येक को वेदज्ञ, अग्निहोत्री एवं धर्मशास्त्रज्ञ होना चाहिए। गौतम (२८।४८) का कहना है कि यदि तीन व्यक्ति न पाये जा सकें तो संशय उपस्थित होने पर विशिष्ट गुणों से समन्वित एक व्यक्ति ही पर्याप्त है। ऐसे व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, शिष्ट, वेद का गम्भीर अध्येता होना चाहिए (गौतम २८४८, मनु १२।२१३ एवं अत्रि १४३)। याज्ञवल्क्य (१७), पराशर (८।१३), अंगिरा का कहना है कि एक ही व्यक्ति यदि वह सर्वोत्तम संन्यासी हो एवं आत्मवित् हो, परिषद् का रूप ले सकता है और संशय उपस्थित होने पर यथोचित नियम का उद्घोष कर सकता है। यद्यपि समय पड़ने पर एक व्यक्ति द्वारा संशय में निर्णय देने की बात कही गयी है, किन्तु साथ ही धर्मशास्त्रकारों ने यह भी घोषित किया है कि जहां तक सम्भव हो एक व्यक्ति ही परिषद न माना जाय; बौधायनधर्मसूत्र (१११३) का कहना है-"धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म होती है, उसका अनुसरण करना बहुत कठिन है, इसमें बहुत से द्वार हैं (अर्थात् धर्म विभिन्न परिस्थितियों या अवसरोपर विभिन्न रूपों में प्रकट होता है), अतः बहुज्ञ होने पर भी संशय की स्थिति में सर्वथा अकेले ही धर्माचार के विषय में उद्घोष नहीं करना चाहिए।"" धर्म की बातें मूर्ख लोगों के मत से नहीं तय की जानी चाहिए, चाहे वे सहस्रों की संख्या १३. अतएव धर्मसूक्ष्मनिर्णये परिषद्-व्यापार इत्यते। पुरुषविशेषश्चापेक्ष्यते दशाबरा परिषत् त्रयो को बेति। शांकरभाष्य (यहवारण्यकोपनिषद् ४॥३२)। १४. मुनीनामात्मविद्यानां द्विजाना यजयाजिनाम् । बेदखतेषु स्नातानामेकोपि परिषद् भवेत् ॥ पराशर १३; पतीनां सत्यतपता मानविज्ञानचेतसाम्। शिरोजतेन स्नातानामेकोपि परिषद् भवेत् ॥ (अपरार्क पृ० २३ एवं पराशरमाधवीय २१, पृ० २१७ द्वारा उद्धृत अंगिरा)। मुण्डकोपनिषद् (३।२।१०) में आया है कि जिन्होंने शिरोषत कर लिया है, ये ब्रह्मविद्या पढ़ने के योग्य माने जाते हैं। १५. बहुद्वारस्य धर्मस्य सूक्ष्मा दुरनुगा गतिः। तस्मान्न वाध्यो होकेन बहुजेनापि संशये।मौ०५० सू० १३११३॥ मत्स्यपुराण १४३१२७ ( वायुपुराण ५७।११२)। धर्म०६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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