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________________ ५०४ धर्मशास्त्र का इतिहास के निष्कासन आदि के मामले उठ खड़े होते थे तो परिषद् की सम्मति ली जाती थी। अतः धर्मशास्त्रों (धर्मसूत्रों, स्मृतियों, निबन्धों आदि) में परिषद् के निर्माण के विषय में नियम आदि बतलाये गये हैं। तैत्तिरीयोपनिषद् (१।११) में विद्याध्ययन के उपरान्त गुरु शिष्य से कहता है--"यदि तुम्हें किसी कृत्य या आचार के विषय में किसी प्रकार की आशंका हो तो तुम्हें वैसा ही करना चाहिए जैसा कि तुम्हारे यहाँ के विचारवान्, कर्तव्यपालन में परायण, सदय एवं धार्मिक ब्राह्मण लोग करते हैं.. .तुम्हें भी वैसा ही होना चाहिए...।"" ऋग्वेद (१०।३४।६) में प्रयुक्त सभा' एवं 'समिति' (१०।९७१६) नामक शब्दों का सम्यक् तात्पर्य अभी विवादग्रस्त है। कहीं-कहीं तो सभा शब्द द्यूत-स्थल का भी द्योतक समझा गया है। किन्तु उपनिषदों में 'समिति' एवं 'परिषद्' जैसे शब्दों ने एक निश्चित अर्थ पकड़ लिया है, अर्थात् किसी विशिष्ट स्थान में विद्वान् लोगों की समा।' छान्दोग्योपनिषद् (५।३।१) में आया है कि जब श्वेतकेतु आरुणेय पञ्चालों की समिति में गया तो वहाँ उससे प्रवाहण जैवलि ने तत्त्वज्ञान एवं गूढार्थ सम्बन्धी पाँच प्रश्न किये। बृहदारण्यकोपनिषद् (६।२।१) ने इसी घटना के वर्णन में परिषद्' शब्द का प्रयोग किया है। इन उक्तियों से स्पष्ट होता है कि उपनिषदों के काल में विद्वान् लोगों की समाएँ होती थी, जहाँ कठिन प्रश्नों पर विवेचन होता था। गौतम (२८।४६) ने भी तैत्तिरीयोपनिषद् (१।११) की भाँति संदेहात्मक प्रश्नों के लिए विद्वान् लोगों से पूछ लेने की बात चलायी है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१॥३॥११॥३४) का कहना है कि उसके द्वारा निर्दिष्ट छुट्टियों के अतिरिक्त अन्य छुट्टियाँ परिषदों द्वारा तय की जाती हैं।" बौधायनधर्मसूत्र (२।१।४४-४५) ने परिषद् एवं उसके कार्य की चर्चा की है। इससे स्पष्ट है कि ईसा से लगभग पाँच शताब्दी पूर्व परिषदों को इतना शक्तिशाली बना दिया गया था कि वे सभी प्रकार के निर्णय देने में समर्थ थीं, यथा अध्ययनाघ्यापन में अवकाश-निर्णय, मूढ़ प्रश्नों का विवेचन, प्रायश्चित्त-सम्बन्धी व्यवस्था आदि। वसिष्ठधर्म० (१११६) ने घोषित किया है कि धर्मशास्त्र एवं तीनों वेदों के ज्ञाता लोग जो कुछ कहते हैं, वह धर्म है। यही बात आपस्तम्बधर्म० (१।११।२) ने दूसरे ढंग से कही है-“धर्मविद् लोगों द्वारा स्थापित परम्पराएँ अन्य लोगों के लिए प्रमाण होती हैं।" जब स्मृतियाँ यह कहती हैं कि "वेद, स्मृति एवं शिष्टाचार धर्म के तीन उपकरण हैं" (वसिष्ठधर्म० ११४-५), तो इसका तात्पर्य यह है कि शिष्टों को समय-समय पर धार्मिक आचरण के स्वरूप का निर्णय करना चाहिए। धर्म के निर्णय के सम्बन्ध में तर्क की महत्ता गायी गयी है (मनु १२।१०६, गौतम १०२३-२४)। मन (१२।१०८) का कहना है-"जब इस पस्तक में किसी विशिष्ट बात के विषय में कोई स्पष्ट निर्णय न पाया जाय तो शिष्ट ब्राह्मण लोग जो निर्णय दें उसे ही उचित नियम मानना चाहिए।" याज्ञवल्क्य (३।३००) ने लिखा है कि दोषी या अपराधी को विद्वान् ब्राह्मणों के समक्ष अपने दोष एवं अपराध कह देने चाहिए और परिषद् द्वारा जो व्रत आदि करने को कहे जायें उनका सम्यक् पालन करना चाहिए। शंकराचार्य ने बृहदारण्यको १०. अथ यदि ते कर्मविचिकित्सामावृत्तविचिकित्सा वा स्यात् । ये तत्र ब्राह्मणाः संमशिनः। युक्ता आयुक्ताः। भलमा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तत्र वर्तन तथा तत्र बर्तेषाः। अयाम्याख्यातेषु । ये तत्र ब्राह्मणाः...तेषु वर्तमाः। ते० उप० २११॥ ११. श्वेतकेतुहरिणेयः पञ्चालान समितिमेयाय त ह प्रवाहणो जैवलिरुवाच । छा० उप० ५।३.१; श्वेतकेतुई आरणेयः पञ्चालानां परिषदमाजगाम । बृह. उप० ६।२।१। १२. अनाशाते दशावरः शिष्टलहविभिरलुग्धः प्रशस्त कार्यम् । गौतम २८।४६; यथोक्तमन्यवतः परिषत्सु । आप० धर्म० १॥३॥१॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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