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धर्मशास्त्र का इतिहास में ही क्यों न उपस्थित हुए हों। मनु (१२६११४-१५, बौधायनधर्मसूत्र ३।५-६, पराशर ८१६ एवं १५) का कहना है-"अव्रती, वेदविहीन एवं केवल जातिबल से ही जीविका चलाने वाले सहस्रों ब्राह्मण परिषद् का रूप नहीं धारण कर सकते। यदि ऐसे व्यक्ति धर्म का उद्घोष (पाप के लिए प्रायश्चित्त का निर्णय) करते हैं तो वह पाप सैकड़ों गुना बढ़कर उन्हीं के (उद्घोष करने वालों के) पास चला जाता है।"
मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य ३।३००) ने लिखा है कि परिषद् के सदस्यों की संख्या उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है, वास्तव में छोटे-छोटे पापों के लिए थोड़े-से विद्वानों द्वारा प्रायश्चित-निर्णय पर्याप्त है, किन्तु भयानक अपराधों के प्रायश्चित्त-निर्णय में परिषद् के सदस्यों की संख्या लम्बी होनी चाहिए। देवल (याज्ञवल्क्य ३।३०० की व्याख्या में मिताक्षरा द्वारा उद्धृत) ने लिखा है कि जब पाप गम्भीर न हो तो ब्राह्मण लोग बिना राजा को बताये प्रायश्चित्त का निर्णय दे सकते हैं और पापी को उसके अधिकार वापस कर सकते हैं, किन्तु गम्भीर पापों में राजा तथा ब्राह्मण लोग सावधानीपूर्वक जाँच करके प्रायश्चित्त का निर्णय देते हैं। पराशर (८१२८-२९) ने आज्ञा दी है"ब्राह्मणों को राजा की आज्ञा से पापों के प्रायश्चित्तका उद्घोष करना चाहिए, उन्हें अपने से ही प्रायश्चित्त की व्यवस्था नहीं देनी चाहिए, और न राजा को ही बिना ब्राह्मणों की सहमति के प्रायश्चित्त का उद्घोष करना चाहिए, नहीं तो पाप बढ़कर सौ गुना हो जाता है।" जब व्यक्ति परिषद् के पास आये, अपनी त्रुटियाँ कहे और छुटकारे का उपाय मांगे तो यदि परिषद् प्रायश्चित्त की व्यवस्था जानकर भी उसे सन्तुष्ट न करे तो उसके सदस्यों को अपराधी का पाप भाता है। पराशर (८२) का कहना है कि अपने पाप के ज्ञान के उपरान्त पापी को परिषद के लोगों के पास जाकर उनके सामने पृथिवी पर दण्डवत् गिर जाना चाहिए और अपने पाप की प्रायश्चित्त-व्यवस्था की मांग करनी चाहिए। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य ३।३००) ने कहा है कि पापी को एक गाय या एक बैल या ऐसा ही कुछ देकर परिषद् के समक्ष अपने पाप का उद्घोष करना चाहिए।"
संन्यासी एवं परिषद् मध्यकाल में स्मृतियों द्वारा निर्धारित परिषद्-सम्बन्धी नियमों का पालन राजाओं एवं विद्वान् ब्राह्मणों द्वारा अक्षरशः किया जाता था। कुछ वर्षों के उपरान्त, विशेषतः दक्षिण में शंकराचार्य के उत्तराधिकारियों ने परिषद् के गुरुतर मार को अपने दुर्बल कंधों पर ले लिया। यह विचित्र परम्परा कब चल उठी, इसका निर्णय करना कठिन है। सन् १२०० ई. के उपरान्त उत्तर भारत का अधिकांश लगभग ५०० वर्षों तक तथा दक्षिण भारत का अल्पांश लगभग ३०० वर्षों तक मुसलमानों के अधिकार में रहा। स्वर्गीय श्री विश्वनाथ के० राजवाड़े (जिन्होंने मराठा इतिहास, मराठी भाषा एवं मराठी साहित्य पर अपने अनुसंधानों से अभूतपूर्व प्रकाश डाला है) एवं उनके मित्रों ने बहुत से लेख्य "माण प्रकाशित किये हैं, जिनसे पता चलता है कि मराठा-आधिपत्य के समय राजा या राज्यमन्त्री द्वारा धार्मिक .मलों में पैठन, नासिक एवं कराड़ के विद्वान् ब्राह्मणों की सम्मति ली जाती थी, कभी-कभी संकेश्वर एवं करवीर
१६. स्वयं तु ब्राह्मणा बयुरल्पदोषेषु निष्कृतिम् । राजा च ब्राह्मणाश्चंय महत्सु च परीक्षितम् ॥येबल (मिताअरा द्वारा या० ३।३०० की व्याख्या में उड़त); राजा चानुमते स्थित्वा प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत् । स्वयमेव न कर्तव्यं कर्तव्या स्वल्पनिष्कृतिः॥ ब्राह्मणांस्तान क्रिम्य राजा कतुं यदिच्छति। तत्पापं शतषा भूत्वा राजानमनुगच्छति ॥ पराशर ८।२८-२९; आर्तानां मार्गमाणानां प्रायश्चित्तानि ये द्विजाः। जानन्तो न प्रयच्छन्ति ते यान्ति समता तु तः॥ अंगिरा (मिताक्षरा द्वारा यान० ३।३०० में उद्धृत); यथाह पराशरः। पापं यिल्यापयेत्यापी दत्वा धनु तथा वृक्षम् । ति। एतच्चोपपातकविषयम्। महापातकाविष्वधिक कल्पनीयम्। मिताक्षरा (याश० ३३००)।
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