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________________ मठ तथा महन्त महिन, पत्नी, पुत्र, वधू, सम्बन्धी, सजातीय, मित्र, पुत्री या पुत्री के पुत्र आदि रहते हैं, एक दिन भी नहीं रहना चाहिए (स्मृतिमुक्ताफल, पृ० २०६)। संन्यासी तथा मठ एवं उनके झगड़े आरम्भ मे उपर्युक्त नियमो का पालन भरपूर होता था। स्वमी शंकराचार्य जीवन पर्यन्त ब्रह्मचारी रहे, किन्तु उन्होंने अपने सिद्धान्तों एवं दर्शन के प्रचार के लिए चार मठ स्थापित किये (शृंगेरी, पुरी, द्वारका एवं बदरी)। श्रद्धालुओं एव भक्तों ने इन मठों को बहुत दानादि दिये। मठों की संख्या बढ़ने लगी और उनमें सम्पत्ति मी एकत्र होने लगी, जिस पर स्वामित्व प्रमुख धर्माध्यक्षों या महन्तों का रहने लगा। केवल अद्वैती संन्यासियों में दस शाखाएँ हो गयी, यश-तीथे, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती एवं पुरी। इन्हें स्वामो शंकराचार्य के चार विष्यों के उत्तराधिकारी शिष्यों के नाम से पुकारा जाता है, यथा- पद्मपाद के शिष्य थे तार्थ एव आश्रम, तामलक के थे वन एवं अरण्य, त्रोटक के थे गिरि, पर्वत एवं सागर तथा सुरेश्वर के थे सरस्वता, भारती एवं पुरी। शृंगेरी, कास्नी, कुम्भकोणम्, कुड़ल्गि, संकेश्वर, शिवगंगा नामक मठों के अधिकार-क्षेत्र, धार्मिक प्रमुखता आदि विषयों में बहुत मतभेद एवं झगड़े होते रहे हैं। अपने अधिकारों की अभिव्यक्ति एवं पुष्टता के लिए बहुत से मठों ने गुरुओं एवं शिष्यों की कमावलियों में हेर-फेर कर डाला है और बहुत सी मनगढन्त बातें जोड़ ली हैं। इस प्रकार विभिन्न मठों द्वारा उपस्थापित सूचियों के नामों में साम्य नहीं पाया जाता। एक सूची के अनुसार सुरेश्वर ७०० या ८०० वर्ष तक जीते रहे। स्वामी शंकराचार्य के समान रामानुजाचार्य एवं मध्वाचार्य के भी बहुत-से शिष्यों ने मठ स्थापित किये। वल्लभाचार्य तथा उनके शिष्यों ने संन्यास नहीं ग्रहण किया। उनके मत से संन्यास कलियुग में वजित है; चौधे आश्रम में केवल प्रवेश होने से संन्यास नहीं प्राप्त हो जाता, बल्कि उद्धव ऐसे भक्त के व्यवहार से परित्याग का सार सामने आता है (भागवत, ३१४)। बहुत-से मठों में अपार सम्पत्ति है जो शान-शौकत (सोने का मूर्तियों के निर्माण एवं अन्य खर्चीले कार्यों) में खर्च होती है। बहुत कम ही मठाधीश पढ़े-लिखे हैं, यहाँ तक कि बहुतों को संस्कृत भाषा तक का ज्ञान नहीं होता, बहुधा वे आधुनिक विचारों एवं आवश्यकताओं के प्रति निरपेक्ष होते हैं और सुधार-सम्बन्धी कार्यों के विरुद्ध रहते हैं। केवल इने-गिने मठों के कुछ महन्त जीवन भर ब्रह्मचर्य रख सके हैं। महन्तों में अधिकांश गृहस्थ होने के उपरान्त संन्यासी हुए थे। इसके अतिरिक्त गद्दी प्राप्त करने के लिए भयंकर होड़ एवं झगड़े चलते हैं। बहुत-से मठों के महन्तों की मृत्यु पास आ जाने पर कुछ लोग किसी इच्छुक गृहस्थ को पकड़कर बाबा (महन्त) का चेला बना देते हैं, जो बाबा की मृत्यु के उपरान्त स्वयं मठाधीश हो जाता है। स्वभावतः ऐसा महन्त अपने घर का मोह नहीं छोड़ता और क्रमशः मठ की सम्पत्ति घर या बाल-बच्चों को भेजता रहता है। जब तक उपयुक्त उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं होता तब तक मठों का सुधार नहीं हो सकता। वास्तय में महन्त के बहुत-से शिष्य होने चाहिए, महन्त की मृत्यु-शय्या पर चुनाव नहीं होना चाहिए, ६. योगपट्टं च दातव्यं वेदान्ताभ्यासतः परम् । ततो नाम प्रकर्तव्यं गुरुणा सर्वसम्मतम् ॥ तीर्थाश्रमवनारगिरिपर्वतसागराः। सरस्वती भारती च पुरी नाम यतेदंश ॥श्रीपादसंज्ञया वाक्यं (धाच्यं ?) नाम तस्य यथातवम् । बारम्भ त्वया कार्य बीमाब्याख्यादिकं सदा । योगपट्टोपि रातव्यः शिष्ये सम्यक् परीक्षिते ॥ स्मृतिनुक्ताफल (पांगम, १० १८२ तथा यतिधर्मसंग्रह, पृ० १०३) में उबृत। और देखिए विलसन कृरत 'Religious Sects of the Hinus' in works, Vol 1 (1861), p. 202 एवं 1० फकुंहर कृत 'Outlines of the Religious Literature of India (1920) p. 174 जिसमें बसनामियों के बारे में लिखा हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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