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________________ ५०० धर्मशास्त्र का इतिहास कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की एक प्रतिनिधि-सभा के स्वर का मान होना चाहिए। संन्यासियों के मठों के अधिपति अथवा महन्त कभी-कमी सम्पत्ति, मान-सम्मान एवं अधिकार-क्षेत्र का मामला लेकर कचहरी तक पहुंचते हैं। उदाहरणार्थ हम निम्न मामलों की जांच कर सकते हैं। श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य महन्त ने दावा किया कि केवल उन्हें ही पालकी पर चढ़कर मार्ग पर चलने का अधिकार है, लिंगायतों के स्वामी ऐसा नहीं कर सकते (देखिए, ३, मूर की इण्डियन अपील्स, पृ० १९८)। द्वारका के शारदा मठ के शंकराचार्य ने मामला पेश किया कि प्रतिवाी को शंकराचार्य की उपाधि एवं मान-सम्मान का अधिकार नहीं मिलना चाहिए और न उसे अहमदाबाद की जनता की दान-दक्षिणा और न गुजरात के अन्य स्थानों के दानादि प्राप्त करने का अधिकार है। वह न तो शंकराचार्य है और न शारदा मठ के शंकराचार्य की पदवी का वास्तविक अधिकारी है. (देखिए, मधुसूदन पर्वत बनाम श्री माधव तीर्थ, ३३, बम्बई, २७८) । विद्याशंकर बनाम विद्यानरसिंह (५१, बम्बई ४४२, प्रिवी कौंसिल) के मामले में प्रिवी कौंसिल को चार व्यक्तियों के झगड़े को तय करना पड़ा था, जिसमें वादी एवं प्रतिवादी दोनों अपने को संकेश्वर एवं करवीर मठ के शंकराचार्य कहते थे, और उन्होंने अपने उत्तराधिकारी भी पहले से नियुक्त कर लिये थे। इस प्रकार इस मामले में चार व्यक्तियों का स्वार्थ निहित था। इन दोनों उदाहरणों से व्यक्त होता है कि महान् संन्यासी एवं दार्शनिक विद्वान् शंकराचार्य के आदर्शों की पूजा आधुनिक समय में किस प्रकार हो रही है ! आश्चर्य है, उन महान् विचारक एवं परम मेधावी दार्शनिक तथा अद्वितीय ब्रह्मचारी संन्यासी के नामधारी आज के संन्यासी मठों की गद्दी पर बैठकर उनका नाम बेच रहे हैं। उन्हें जीवन्मुक्तिविवेक एवं उसके द्वारा उद्धृत मेधातिथि के शब्द स्मरण रखने चाहिए; “यदि निवासस्थान के रूप में कोई संन्यासी कोई मठ प्राप्त करता है तो उसका मन मठ की उन्नति एवं हानि से चलायमान हो उठेगा, अतः किसी संन्यासी को मठ की प्राप्ति नहीं करनी चाहिए, उसे अपने प्रयोग के लिए सोने एवं चाँदी के पात्र एवं बरतन भी नहीं रखने चाहिए और न अपनी सेवा सम्मान, यश-प्रसार एवं धन-लाभ के लिए शिष्य-संग्रह करना चाहिए, उसे केवल लोगों की अबोधता या अज्ञान दूर करने के लिए शिष्य-संग्रह करना चाहिए।" उत्तरकालीन संन्यासी वेदान्ती.संन्यासियों के विषय में डा० जे० एन० फर्कुहर (जे० आर० ए० एस०, १९२५, पृ० ४७९-४८६)ने एक बहुत ही विद्वत्तापूर्ण लेख लिखा है। उसमें इसका वर्णन है कि किस प्रकार अस्त्रों एवं शस्त्रों से सुसज्जित मुसलमान फकीरों ने हिन्दू संन्यासियों को कष्ट दिया तथा बहुतों को तलवार के घाट उतार दिया, किस प्रकार मधुसूदन सरस्वती ने सम्राट अकबर के पास जाकर उससे प्रार्थना की, किस प्रकार पूरी सहायता न पाने पर मधुसूदन सरस्वती ने दसनामियों में सात नामों के संन्यासियों के रूप में क्षत्रियों एवं वैश्यों को दीक्षित कर उन्हें अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित किया, किस प्रकार इन संन्यासियों ने मुसलमान फकीरों से तथा अपने में युद्ध किया, किस प्रकार अब्राह्मण नारियाँ गिरि एवं पुरी के रूप में दीक्षित र किस प्रकार उत्तर भारत में आज केवल तीर्थ, आथम एवं सरस्वती नामक संन्यासी ही एकान्तिक रूप में बचे हुए हैं। उपर्युक्त नयी रीति से दीक्षित संन्यासियों की परम्परा ने आगे चलकर भयंकर परिणाम उपस्थित ७. यदि नियतवासार्थ कंचिन्मठं संपादयेत्तदानों तस्मिन्ममत्वे सति तदीयहानिवृखचोश्चित्तं विक्षिप्येत।.. पया मठो न परिग्रहीतव्यस्तथा सौवर्णराजतादीमा भिक्षाचमनादिपात्राणामेकमपि न गृहणीयात्।...मेधातिथिरपि । आसनं पात्रलोपश्चासंयमः शिष्यसंग्रहः। दिवास्वापो वृथालापो यतेन्धकराणि षट् ॥... शुश्रूषालाभपूजार्थं यशोयं - वा परिग्रहः। शिष्याणां न तु कारुण्यात्स ज्ञेयः शिष्यसंग्रहः॥ जीवन्मुक्तिविवेक, पृ० १५८-९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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