SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९८ धर्मशास्त्र का इतिहास और जिसमें प्रवेश करने के पूर्व प्रेष मन्त्र का उच्चारण करना पड़ता है। जीवन्मुक्तिविवेक (पृ. ३) के अनुसार मोक्ष (अमृतत्व) त्याग पर निर्भर रहता है, जैसा कि कैवल्योपनिषद् (२) में आया है-"न तो कर्मों से, न सन्तानोत्पत्ति से और न धन से ही बल्कि त्याग से कुछ लोगों ने मोक्ष प्राप्त किया।" ऐसे त्याग के लिए शूद्रों एवं नारियों, दोनों को छूट है, नारियों के त्याग में सर्वोत्तम त्याग याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी का माना जाता है, जिसने ऋषि याज्ञवल्क्य से स्पष्ट शब्दों में कहा था-"जो मुझे अमर नहीं बनायेगा मैं उसे लेकर क्या करूँगी?" (बृहदारण्यकोपनिषद् ४।५।३-४)। भगवद्गीता (१८॥२) में भी आया है कि संन्यास (किसी उद्देश्य की प्राप्ति की लालसा से उत्पन्न) कर्मों का त्याग है। जीवन्मुक्तिविवेक में यह भी आया है कि संन्यासी की माता एवं पत्नी के संन्यासाश्रम में प्रविष्ट होने पर वे पुनः स्त्री के रूप में जन्म नहीं लेती (प्रत्युत वे पुरष रूप में उत्पन्न होती हैं)। अतः नारियाँ एवं शूद्र भी कर्मों का त्याग कर सकते हैं, भले ही वे संन्यासियों की विलक्षण वेश-भूषाएँ एवं अन्य बाह्य उपकरण धारण न कर सके। वेदान्तसूत्र (१।३।३४) के एक भाष्यकार श्रीकर के मत से संन्यास केवल तीन वर्गों के लिए है, किन्तु न्यास (भौतिक आनन्दों एवं कांक्षाओं का त्याग) तो शूद्रों, नारियों एवं वर्णसंकरों (मिश्रित जाति वालों) द्वारा किया जा सकता है। संन्यास तथा अन्धे, लुले-लँगड़े, नपुंसक आदि कुछ लोगों के मत से संयास केवल अन्वों, लूले-लँगड़ों तथा नपुंसकों के लिए है, क्योंकि ये लोग वैदिक कृत्यों के सम्पादन के अनधिकारी हैं। वेदान्तसूत्र (३।४।२०) के भाष्य में स्वामी शंकराचार्य ने तथा सुरेश्वर ने शंकराचार्य के बृहदारण्यकोपनिषद् के भाष्य में इस मत का खण्डन किया है। मनु (६।३६) की व्याख्या में मेधातिथि ने भी उपयुक्त मत का खण्डन करते हुए लिखा है कि अन्धे, लूले-लंगड़े, नपुंसक आदि संन्यास के अयोग्य हैं, क्योंकि संन्यास के नियमों का पालन उनसे नहीं हो सकता। अन्धों एवं लूले-लँगड़ों का एक गाँव में एक ही रात्रि तक ठहरना तथा नपुंसकों का बिना उपनयन हुए संन्यास धारण करना युक्तिसंगत नहीं जंचता (नपुंसकों का उपनयन-संस्कार नहीं होता)। यही लात मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य ३१५६) में भी पायी जाती है। स्मृतिमुक्ताफल (पृ० १७३) एवं यतिधर्मसंग्रह (पृ० ५-६) ने उद्धरण दिया है-“संन्यासधर्म से च्युत का पुत्र, असुन्दर नखों एवं काले दाँतों वाला व्यक्ति, क्षय रोग से दुर्बल, लूला या लँगड़ा व्यक्ति संन्यास नहीं धारण कर सकता। इसी प्रकार वे लोग जो अपराधी, पापी, व्रात्य होते हैं, सत्य, शौच, यज्ञ, व्रत, तप, दया, दान, वेदाध्ययन, होम आदि के त्यागी होते हैं, उन्हें संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा नहीं है।" संन्यास एवं नियमभ्रष्टता यतियों के मुख्य नियमों में एक नियम था पत्नी एवं गह का त्याग तथा मैथुन के विषय में कभी न सोचना या पुनः गृहस्थ बन जाने की इच्छा पर नियन्त्रण रखना। अवि (८।१६ एवं १८) ने घोषित किया है-“मैं उस व्यक्ति के लिए किसी प्रायश्चित्त की कल्पना तक नहीं कर सकता को संन्यासी हो जाने के उपरान्त भ्रष्ट या च्यत हो जाता है; वह न तो द्विज है और न शुद्र है, उसकी सन्तति चाण्डाल हो जाती है और विदूर कहलाती है।" शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र के भाष्य (३।४४२) में अत्रि के उपर्युक्त बचन को उद्धृत करके कहा है कि प्रायश्चिन न होने की बात केवल कामुकता के प्रलोभन से बचने पर बल देने के लिए कही गयी है, वास्तव में प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गयी है। यदि कोई भिक्षु मैथुन कर बैठता है तो उसका प्रायश्चित्त है। दक्ष (७१३३) ने लिखा है कि राजा को चाहिए कि वह उस व्यक्ति के मस्तक पर कुत्ते के पैर की मुहर लगाकर देश-निकाला कर दे, जो संन्यासी हो जाने के उपरान्त नियमों (ब्रह्मचर्य रहने या 'लँगोटा कसकर बाँधने आदि नियमों) का पालन नहीं करता। जो संन्यासी के धर्म से च्यत हो जाता है, वह जीवन भर राजा का दास रहता है। अत्रि के मत से संन्यासी को उस स्थान पर, जहाँ उसके माता, पिता, भाई, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy