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________________ संन्यासका अधिकार ४९७ बहुत-से लेखकों ने उपर्युक्त दोनों मतों का समर्थन किया है। महान् विचारक शंकराचार्य ने बृहदारण्यकउपनिषद् (३।५।१ एवं ४।५।१५) के भाष्य में केवल ब्राह्मणों को ही संन्यास के योग्य माना है। किन्तु शंकराचार्य के शिष्य सुरेश्वर ने शांकरभाष्य के वार्तिक में अपने गुरु के मत का खण्डन किया है। मेधातिथि (मनु ६।९७), मिताक्षरा, मदनपारिजात (पृ० ३६५-३७३), स्मृतिमुक्ताफल (वर्णाश्रम, पृ० १७६) ने केवल ब्राह्मणों को संन्यासाश्रम के योग्य ठहराया है। किन्तु स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० ६५) ने दूसरे मत का समर्थन किया है। महाभारत (आदिपर्व ११९) के अनुसार क्षत्रिय भी संन्यासी हो सकते हैं। शान्तिपर्व (६३।१६-२१) ने राजाओं को जीवन के अन्तिम क्षणों में संन्यासी हो जाने को लिखा है। कालिदास ने रघुवंश (८।१४ एवं १६) में रघु के संन्यास का कवित्वमय वर्णन उपस्थित किया है और संन्यासी वृद्ध राजा तथा नये अभिषिक्त राजा की तुलना बड़े मनोरञ्जक ढंग से की है। संन्यास एवं शूद्र स्मृतियों एवं मध्य काल के ग्रन्थों के अनुसार शूद्र संन्यास नहीं धारण कर सकता। शान्तिपर्व (६३।११-१४) ने स्पष्ट लिखा है कि शूद्र भिक्षु नहीं हो सकता। इसमें एक स्थान (१८१३२) पर ऐसा आया है कि कुछ लोग (सम्भवतः शूद्र भी) बाह्य रूप से संन्यासी बनकर भिक्षा तथा दान ग्रहण करते हैं। वे सिर मुंडाकर, काषाय वस्त्र धारण कर इधर-उधर घूमा करते हैं और वञ्चकता प्रदर्शित करते हैं। किन्तु प्राचीन स्मृतियों के अवलोकन से पता चलता है कि शूद्र लोग भी संन्यासी बन सकते थे। विष्णुधर्मसूत्र (५।११५) एवं याज्ञवल्क्य (२।२४१) में स्पष्ट लिखा है कि जो लोग शूद्र संन्यासी को देवों एवं पितरों के पूजन-कृत्यों के समय भोजन देते हैं, उन पर १०० पण का दण्ड लगना चाहिए। आश्रमवासिकपर्व (२६।३३) में आया है कि विदुर संन्यासी के रूप में गाड़े गये। इस पर टीकाकार नीलकण्ठ ने लिखा है कि इससे स्पष्ट होता हे शूद्र भी संन्यासी बन सकते थे। संन्यास एवं नारियां प्राचीन ब्राह्मणवादी कालों में कभी-कभी नारियाँ भी संन्यास धारण कर लेती थीं। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य ३१५८) ने बौधायन के एक सूत्र (स्त्रीणां चैके) का उद्धरण देते हुए लिखा है कि कुछ आचार्यों के मत में नारियाँ भी संन्यासाश्रम में प्रविष्ट हो सकती थीं। पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य (२, पृ० १००) में शंकरा नामक परिवाजिका का उल्लेख किया है। स्मृतिचन्द्रिका ने यम (व्यवहार, पृ० २५४) को उद्धृत किया है-"नारियों के लिए न तो वेदों में और न धर्मशास्त्रों में संन्यासाश्रम में प्रविष्ट होने की व्यवस्था पायी जाती है, उनका उचित धर्म है अपनी जाति के पुरुषों से सन्तानोत्पत्ति करना।" अत्रि (१३६-१३७) ने लिखा है कि नारियों एवं शूद्रों के लिए छ: कार्य वर्जित हैं, जिनके करने से पाप लगता है-जप, तप, प्रव्रज्या (संन्यास-जीवन), तीर्थयाग, मन्त्रसाधन, देवताराधन । कालिदास ने अपने नाटक मालविकाग्निमित्र में पण्डिता कौशिकी को संन्यासी के वेश में दर्शाया है (१३१४)। उपर्युक्त विवेचन से प्रकट होता है कि हिन्दू धर्म में सामान्यतः नारियों के लिए अगृही होकर संन्यासियों-जैसा इधर-उधर घूमना अच्छा नहीं माना जाता रहा है। संन्यास तथा शूद्र एवं नारी की योग्यता ___ शूद्रों एवं नारियों के संन्यासी बनने का प्रश्न उलझा हुआ-सा । 'संन्यास' शब्द से दो भावनाएँ प्रकट होती हैं; (१) किसी उद्देश्य की प्राप्ति की अभिकांक्षा से उत्पन्न सभी प्रकार के कार्यों (काम्य कर्म) का परित्याग, एवं (२) किसी विशिष्ट जीवन-लंग (आश्रम) का अनुसरण, जिसके बाह्य लक्षण हैं दण्ड, काषाय आतिला धारण करना, धर्म० ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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