SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संन्यासियों के मेव उसे इस संसार की क्षणभंगुरता पर ध्यान देना चाहिए, उसे गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक की अनगिनत परेशानियों तथा जन्म-मरण के अजस्र प्रवाह की कल्पना करते रहना चाहिए (मनु ६१७६-७७, याज्ञ० ३।६३-६४, विष्णुधर्मसूत्र ९६।२५-४२)। (२१) सत्यता, अप्रवञ्चना, क्रोधहीनता, विनीतता, पवित्रता, मले एवं बुरे का भेद, मन की स्थिरता, मननियन्त्रण, इन्द्रिय-निग्रह, आत्मज्ञान आदि सभी वर्गों के धर्म हैं। संन्यासी को तो इन्हें प्राप्त करना ही है, क्योंकि केवल वेश-भूषा, कमण्डलु आदि से कुछ होता-जाता नही–इन्हें तो वञ्चक भी धारण कर सकता है (मनु ६॥३६, ९२-९४, याज्ञ० ३६५-६६, वसिष्ठ १०१३०, बौधायन० २।१०।५५-५६, शान्तिपर्व १११११३-१४, वायुपुराण, जिल्द १, ८1१७६-१७८)। (२२) संन्यासी को प्राणायाम एवं अन्य योगांगों द्वारा अपने मन को पवित्र रखना चाहिए, जिससे कि वह क्रमशः ब्रह्म को समझ ले और अन्त में मोक्ष पद प्राप्त कर ले (मनु ६७०-७५, ८१ एवं याज० ३१६२, ६४)। संन्यासियों के प्रकार बहुत-से ग्रन्थों में संन्यासियों के प्रकारों का वर्णन पाया जाता है। अनुशासन-पर्व (१४११८९) ने चार प्रकार बताये हैं; कुटीचक, बहुदक, हंस एवं परमहंस, जिनमें प्रत्येक आगे वाला पिछले से श्रेष्ठ कहा जाता है। वैखानस (८1९), लघु-विष्णु (४।१४-२३), सूतसंहिता (मानयोगखण्ड, अध्याय ६), भिक्षुकोपनिषद्, प्रजापति (अपराक, पृ० ९५२ में उद्धृत) ने इन चारों प्रकारों की परिभाषाएँ दी हैं, जिनमें बहुत मतभेद है। कुटीचक संन्यासी अपने गृह में ही संन्यास धारण कर रहता है, शिखा, जनेऊ, त्रिदण्ड, कमण्डलु धारण करता है तथा अपने पुत्रों या कुटुम्बियों से भिक्षा मांगकर खाता है। वह अपने पुत्रों द्वारा निर्मित कुटिया में ही रहता है। कुटीचक लोग गौतम, भरद्वाज, याशवल्क्य एवं हारीत नामक शापिया के आश्रमों में भी ठहरते थे, वे प्रति दिन केवल ८ ग्रास भोजन करते थे, योग-मार्ग जानते थे और मोक्ष-प्राप्ति के साधनों में लगे रहते थे। बहरकों के पास त्रिदण्ड, कमण्डलु, काषाय वस्त्र रहते हैं, वे ऋषितुल्य सात ब्राह्मणों के यहाँ से भिक्षा मांगते हैं, किन्तु मांस, नमक एवं बासी भोजन नहीं लेते। हंस लोग प्राम में एक रात्रि, नगर में पांच रात्रियों से अधिक मिक्षा गाँगने के लिए नहीं ठहरते, वे गोमूत्र या गोबर पीते-खाते हैं या एक मास का उपवास करते हैं या सदैव चान्द्रायण व्रत करते रहते है। स्मृतिमुक्ताफल (वर्णाश्रम, पृ० १८४) में उद्धृत पितामह के मत से हंस संन्यासी एकदण्डी होते हैं और केवल भिक्षाटन के लिए ही ग्राम में प्रवेश करते हैं, नहीं तो देव खोह (गुफा) में, नदी-तट पर या पेड़ के नीचे रहते हैं। परमहंस सदैव पेड़ के नीचे ही खाली मकान या श्मशान में निवास करते हैं। या तो वेनंगे रहते हैं या वस्त्र धारण करते हैं। वे धर्माधर्म, सत्यासत्य, पवित्रापवित्र के द्वन्द्वों या दैतों के परे रहते हैं। वे सबको एक-समान मानते हैं, सबको आत्मा के सामन समझते हैं और सभी वर्गों के यहाँ मिक्षा मांगते हैं। पराशरमाषवीय (१२२, पृ० १७२१७६) के मत से परमहंसों को एक दण्ड धारण करना चाहिए, इसके अनुसार परमहंस के दो प्रकार हैं; विद्वत्परमहंस (जिसने ब्रह्मानुभूति कर ली हो) तथा विविदिषु (जो आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए सतत सचेष्ट रहते हैं)। पराशरमाधवीय ने बित् की व्याख्या के लिए बृहदारण्यकोपनिषद् पर तथा विविविष के लिए जाबालोपनिषद् पर जोर दिया है। याज्ञवल्क्य विद्वत्संन्यास के उदाहरण हैं, जिससे जीवन्मुक्ति प्राप्त होती है (जीवन्मुक्ति से इसी जीवन में अर्थात् इसी शरीर के साथ मोक्ष प्राप्त होता है)। विविदिषा-संन्यास से मृत्यूपरान्त मोक्ष प्राप्त होता है, जिसे विवह मुक्ति भी कहा जाता है। देखिए जीवन्मुक्तिविवेक (पृ. ४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy