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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास (१२) संन्यासी को केवल अपना गुप्तांग ढकने के लिए वस्त्र धारण करना चाहिए, उसे अन्य लोगों द्वारा छोड़ा हुआ जीर्ण-शीर्ण किन्तु स्वच्छ वस्त्र पहनना चाहिए (गौतम ३६१७-१८, आपस्तम्बधर्मसूत्र २।९।२१।११-१२)। कुछ लोगों के मत से उसे नंगा रहना चाहिए । वसिष्ठ (१०।९-११) के मत से उसे अपने शरीर को वस्त्र के टुकड़े से अर्थात् शाटी (गात्रिका) से ढकना चाहिए या मृगचर्म या गायों के लिए काटी गयी पास से। बौधायनधर्मसूत्र (२।६।२४) के अनुसार उसका वस्त्र काषाय होना चाहिए (अपराक, पृ० ९६२ में उद्धृत)। (१३) संन्यासी का भिक्षापात्र तथा जलपात्र मिट्टी, लकड़ी, तुम्बी या बिना छिद्र वाले बांस का होना चाहिए, किसी भी दशा में उसे धातु का पात्र प्रयोग में नहीं लाना चाहिए। उसे अपना जल-पात्र या भोजन-पात्र जल से या गाय के बालों से घर्षण करके स्वच्छ रखना चाहिए (मनु ६।५३-५४, याज्ञ० ३१६० एवं लघु-विष्णु ४।२९-३०) । (१४) उसे अपने नख, बाल एवं दाढ़ी कटा लेनी चाहिए (मनु ६१५२, वसिष्ठधर्मसूत्र १०।६) । किन्तु गौतम ने विकल्प भी दिया है (३।२१), अर्थात् वह चाहे तो मुण्डित रहे या केवल जटा रखे। (१५) उसे स्थण्डिल (खाली चबूतरे) पर सोना चाहिए, यदि रोग हो जाय तो चिन्ता नहीं करनी चाहिए। न तो उसे मृत्यु का स्वागत करना चाहिए और न जीने पर प्रसन्नता प्रकट करनी चाहिए। उसे धैर्यपूर्वक मृत्यु की बाट उसी प्रकार जोहनी चाहिए जिस प्रकार नौकर नौकरी के समय की बाट देखता रहता है (मनु ६।४३ एवं ४६) । (१६) केवल वैदिक मन्त्रों के जप को छोड़कर उसे साधारणतः मौन-व्रत रखना चाहिए (मनु ६।४३, गौतम ३।१६, बौधायनधर्म० २।१०७९, आपस्तम्बधर्मसूत्र २।९।२१।१०)। (१७) याज्ञवल्क्य (३१५८) के अनुसार उसे त्रिदण्डी (तीन छड़ियों वाला) होना चाहिए, किन्तु मनु (६।५२) ने उसे दण्डी (एक छड़ी लेकर चलनेवाला) ही कहा है। 'दण्ड' शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है; (१) बांस का दण्ड या (२) नियन्त्रण। बौधायनधर्म० (२।१०।५३) का कहना है कि संन्यासी एकदण्डी या त्रि-दण्डी हो सकता है: उसे प्राणियों को वाणी, क्रियाओं एवं विचारों से हानि नहीं पहुँचानी चाहिए (बौ० २।६।२५)। मनु (१२।१०) एवं दक्ष (७।३०) के मत से जो व्यक्ति वाणी, मन एवं शरीर पर संयम या नियन्त्रण रखता है, वही त्रिदण्डी है। दक्ष का कहना है कि देव लोग भी, जो सत्त्वगुण वाले होते हैं, इन्द्रिय-सुख के वशीभूत हो सकते हैं, तो मनुष्यों का क्या कहना है ? अतः जिसने आनन्द का स्वाद लेना छोड़ दिया है वही दण्ड धारण कर सकता है; अन्य लोग ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि वे भोग-विलास के वशीभूत हो सकते हैं। केवल बांस के दण्डों के धारण से कोई संन्यासी त्रिदण्डी नहीं हो जाता, वही त्रिदण्डी है जो अपने में आध्यात्मिक दण्ड रखता है। बहुत-से लोग केवल त्रिदण्ड धारण करके अपनी जीविका चलाते हैं (७।२७-३१)। वाणी के दण्डन या नियन्त्रण का नात्पर्य है मौन-धारण, कर्म-नियन्त्रण है किसी जीव को हानि न पहुंचाना तथा मानसिक नियन्त्रण है प्राणायाम एवं अन्य यौगिक अभ्यास आदि करना। दक्ष के अनुसार त्रिदण्ड यतियों का विशिष्ट बाह्य चिह्न है; मेखला, मृगचर्म एवं दण्ड वैदिक छात्रों का तथा लम्बे-लम्बे नख एवं दाढ़ी वानप्रस्थ का लक्षण है। लघु-विष्णु (४।१२) के मत से संन्यासी एकवणी या त्रिवडी हो सकता है। (१८) उसे यज्ञों, देवों एवं दार्शनिक विचारों से सम्बन्धित वैदिक बातों का अध्ययन एवं उच्चारण करना चाहिए (यथा-'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म-तैत्तिरीयोपनिषद् २॥१)। देखिए मनु (६।८३) । (१९) उसे भली भांति आगे भूगि-निरीक्षण करके चलना चाहिए, पानी छानकर पीना चाहिए (जिससे चींटी आदि जीव पेट के भीतर न चले जायँ), सत्य से पवित्र हुए शब्दों का उच्चारण करना चाहिए तथा वही करना चाहिए जिसे करने के लिए अन्तःकरण कहे (मनु ६।४६, शंख ७७, विष्णुधर्मसूत्र ९६।१४-१७)। (२०) वैराग्य (इच्छाहीनता) की उत्पत्ति एवं अपनी इन्द्रियों के निग्रह के लिए उसे यह सोचना चाहिए कि यह शरीर रोगपूर्ण होगा ही. एक-न एक दिन यह बूढ़ा होगा ही, यह भांति-भांति के अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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