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संन्यासी के कर्तव्य
धर्मसूत्र (१०), मनु (६।३३-८६), याज्ञवल्क्य (३५६-६६), वैखानस (९।९), विष्णुधर्मपूत्र (९६), शान्तिपर्व (अध्याय २४६ एवं २७९), आदिपर्व (११९।७-२१), आश्वमेधिकपर्व (४६।१८-४६), शंखरगति (७, श्लोकबद्ध), दक्ष (७।२८-३८), कूर्मपुराण (उत्तरार्ध, अध्याय २८), अग्निपुराण (१६१) आदि। हम र.न्यास के कर्तव्यों एवं लक्षणों की चर्चा निम्न रूप से करेंगे।
(१) संन्यास आश्रम ग्रहण करने के लिए व्यक्ति को प्रजापति के लिए यज्ञ करना पड़ता है, अपनी सारी सम्पत्ति पुरोहितों, दरिद्रों एवं असहायों में बाँट देनी होती है (मनु ६।३८, याज्ञ० ३।५६, विष्णुध० ९६।१, शंख ७१)। जो लोग तीन वैदिक अग्नियाँ रखते हैं उन्हें प्राजापत्येष्टि तथा जिनके पास केवल गृह्य अग्नि होती है वे अग्नि के लिए इष्टि करते हैं (यतिधर्मसंग्रह, पृ० १३) । जाबालोपनिषद् (४) ने केवल अग्नि की इष्टि की बात कही है
और प्राजापत्येष्टि का खण्डन किया है। नृसिंहपुराण (६०१२-४) के अनुसार संन्यासाश्रम में प्रविष्ट होने के पूर्व आठ श्राद्ध करने चाहिए। नृसिंहपुराण (५८।३६) ने प्रत्येक वैदिक शाखानुयायी को संन्यासी होने की छूट दी है, यदि वह वाणी, कामसंवेग, भूख. जिह्वा का संयमी हो । आठ प्रकार के श्राद्ध ये हैं-वंव (वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों को), आर्ष (मरीचि आदि दस "षियों को), दिव्य (हिरण्यगर्भ एवं वैराज को), मानुष (सनक, सनन्दन एवं अन्य पाँच को), भौतिक (पंचभूतों, पृथिवी आदि को पतक (कव्यवाड् अग्नि, सोम, अर्यमाओं-अग्निष्वात्त आदि पितरों को), मातृभाड (गौरी-पपा आदि दस माताओं को) तथा आत्मवाद (परमात्मा को)। इस विषय में देखिए यतिधर्मसंग्रह (पृ० ८९) एवं स्मृतिचन्द्रिका (पृ० १७७)। मनु (६।३५-३७) ने सतर्कता से लिखा है कि वेदाध्ययन, सन्तानोत्पत्ति एवं यज्ञों के उपरान्त (देव- ण, ऋषि-ऋण एवं पितृ-ऋण चुकाने के उपरान्त) ही मोक्ष की चिन्ता करनी चाहिए। बौधायनघ० (२।१०।३-६) एवं वैखानस (९।६) ने लिखा है कि वह गृहस्थ, जिसे सन्तान न हो, जिसकी पत्नी मर गयी हो या जिसके लड़के ठीक से धर्म-मार्ग में लग गये हों या जो ७० वर्ष से अधिक अवस्था का हो चुका हो, संन्यासी हो सकता है। कौटिल्य (२॥१) ने लिखा है कि जो व्यक्ति बिना बच्चों एवं पत्नी का प्रबन्ध किये संन्यासी हो जाता है उसे साहस-दण्ड मिलता है। मनु (६।३८) के मत से संन्यासी होनेवाला अपनी अग्नियों को अपने में समाहित कर घर-त्याग करता है।
(२) घर, पत्नी, पुत्रों एवं सम्पत्ति का त्याग करके संन्यासी को गांव के बाहर रहना चाहिए, उसे बेघर का होना चाहिए, जब सूर्यास्त हो जाय तो पेड़ों के नीचे या परित्यक्त घर में रहना चाहिए, और सदा एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलते रहना चाहिए। वह केवल वर्ग के मौसम में एक स्थान पर ठहर सकता है (मनु ६।४१, ४३-४४, वसिष्ठधर्म० १०.१२-१५, शंख ७६)। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य ३५८) द्वारा उद्धृत शंख के वचन से पता चलता है कि संन्यासी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर केवल दो मास तक रुक सकता है। कण्व का कहना है कि वह एक रात्रि गांव में, या पांच दिन कसवे में (वर्षा ऋतु को छोड़कर) रह सकता है। आषाढ़ की पूर्णिमा से लेकर चार या दो महीनों तक वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रुका जा सकता है। संन्यासी यदि चाहे तो गंगा के तट पर सदा रह सकता है।
(३) संन्यासी को सदा अकेले धूमना चाहिए, नहीं तो मोह एवं बिछोह से वह पीड़ित हो सकता है। दक्ष (७।३४-३८) ने इस बात पर यों बल दिया है-“वास्तविक संन्यासी अकेला रहता है ; जब दो एक साथ टिकते हैं तो दोनों एक जोड़ा हो जाते हैं, जब तीन साथ टिकते हैं तो वे ग्राम के समान हो जाते हैं, जब अधिक (अर्थात् तीन से अधिक) एक साथ टिकते हैं तो वे नगर के समान हो जाते हैं। तपस्वी को जोड़ा, ग्राम एवं नगर नहीं बनाना चाहिए, नहीं तो वैसा करने पर वह धर्मच्युत हो जायगा। क्योंकि दो के साथ रहने से राजवार्ता (लोकवार्ता) होने लगती है, एक-दूसरे की मिक्षा के विषय में चर्चा होने लगती है और अत्यधिक सान्निध्य से स्नेह, ईर्ष्या, दुष्टता आदि मनोभावों की उत्पत्ति हो जाती है। कुतपस्वी लोग बहुत-से कार्यों में संलग्न हो जाते हैं, यथा धन-सम्पत्ति या आदर प्राप्ति के लिए व्याख्यान देकर शिष्यों को एकत्र करना आदि । तपस्वियों के लिए केवल चार प्रकार की क्रियाएँ हैं-(१) ध्यान,
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