SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 513
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय २८ संन्यास छान्दोग्योपनिषद् (२।२३।१) में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ नामक तीन आश्रमों की ओर संकेत मिलता है। सम्भवतः इस उपनिषद् ने संन्यास को चौथे आश्रम के रूप में ग्रहण नहीं किया है, बृहदारण्यकोपनिषद् जैसी प्राचीन उपनिषदों में सांसारिक मोहकता के त्याग, भिक्षा-वृत्ति एवं परब्रह्म-ध्यान पर बल अवश्य दिया गया है, किन्तु इस प्रकार की धारणाओं के साथ संन्यास नामक किसी आश्रम की चर्चा नहीं हुई है। जाबालोपनिषद् (४) ने संन्यास को चौथे आश्रम के रूप में ग्रहण करने को रुच्यधीन छोड़ दिया है और कहा है कि इसका ग्रहण प्रथम दो आश्रमों में किसी के उपरान्त हो सकता है। वृहदारण्यकोपनिषद् (२।४।१) में आया है कि याज्ञवल्क्य ने परिव्राजक होने के समय अपनी स्त्री मैत्रेयी से सम्पत्ति को उस (मैत्रेयी) में और कात्यायनी (मैत्रेयी की सौत) में बाँट देने की चर्चा की। इससे प्रकट होता है कि उन दिनों परिव्राजकों को घर-द्वार, पत्नी एवं सारी सम्पत्ति का परित्याग कर देना पड़ता था। इसी उपनिषद् (३।५।१) में आया है. कि आत्मविद् व्यक्ति सन्तान, सांसारिक सम्पत्ति, मोह आदि छोड़ देते हैं और भिखारी का जीवन व्यतीत करते हैं; अतः ब्राह्मण को चाहिए कि वह सम्पूर्ण पाण्डित्य-प्राप्ति के उपरान्त बालक-सा बना रहे (अर्थात् उसे अपने पाण्डित्य की अभिव्यक्ति नहीं करनी चाहिए), ज्ञान एवं बाल्य (बच्चों जैसे व्यवहार) के ऊपर उठकर उसे मुनि की स्थिति में आना चाहिए तथा मनि (मौन रूप में रहने) या अमनिकेरूप से ऊपर उठकर उसे वास्तविक ब्राह्मण (जिसने ब्रह्म की अनुभूति कर लीहो) बन जाना चाहिए।' इसी प्रकार के अन्य शब्दों एवं मनोभावों के अध्ययन के लिए देखिए बृहदारण्यकोपनिषद् (४।४।२२)। जाबालोपनिषद् (५) ने लिखा है कि परिव्राट् लोग विवर्ण-वास (श्वेत वस्त्र नहीं) धे, मुण्डित सिर, बिना सम्पत्ति वाले, पवित्र, अद्रोही, भिक्षा वृत्ति करने वाले थे तथा ब्रह्म-संलग्न रहते थे। परमहंस, ब्रह्म, नारद-परिव्राजक एवं संन्यास उपनिषदों में संन्यास के विषय में बहुत से नियम हैं। किन्तु इन उपनिषदों की ऐतिहासिकता एवं सचाई पर सन्देह है, अतः हम धर्मसूत्रों एवं प्राचीन स्मृतियों के नियमों की ही चर्चा करेंगे। संन्यास-धर्म यतिधर्म अथवा संन्यास-धर्म के विषय में हम निम्नलिखित ग्रन्थों का विवेचन उपस्थित करेंगे, यथा--गौतम (३३१०-२४), आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।९।२१।७-२०), बौधायनधर्मसूत्र (२।६।२१-२७ एवं २१०) वसिष्ठ १. मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्य उद्यास्यन्वा अरेऽहमस्मात् स्थानावस्मि हन्त सऽनया कात्यायन्याऽन्तं कर. वाणोति । बृह० उ० २।४।१; एतं वै समात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रषणायाश्च वित्तषणायाश्च लोकंषमायाश्च व्युत्थावाथ भिक्षावयं चरन्ति।...तस्माद् ब्राह्मणःपाण्डित्यं निविध बाल्येन तिष्ठासेत् । बाल्यं च पाणित्यंब निविद्याप मुनिरमौनं च मौनं च निविद्याथ ब्राह्मणः। बृह० उ० ३।५।१। और देखिए वेदान्तसूत्र ३४४७-४९ एवं ५०, जहाँ अन्तिम अंश पर विवेचन उपस्थित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy