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________________ ४९२ धर्मशास्त्र का इतिहास (२) शौच, (३) भिक्षा एवं (४) एकान्तशीलता (सदा अकेले रहना)।' नारद के अनुसार यतियों के लिए छ: प्रकार के कार्य राजदण्डवत् अनिवार्य माने गये हैं--भिक्षाटन, जप, ध्यान, स्नान, शौच, देवार्चन । (४) संन्यासी को ब्रह्मचारी होना चाहिए और सदा ध्यान एवं आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति भक्ति रखनी चाहिए एवं इन्द्रिय-सुख, आनन्दप्रद वस्तुओं से दूर रहना चाहिए (मनु ६।४१ एवं ४९, गौतम ३३११)। (५) संन्यासी को बिना जीवों को कष्ट दिये घूमना-फिरना चाहिए, उसे अपमान के प्रति उदासीन रहना चाहिए, यदि कोई उससे क्रोध प्रकट करे तो क्रोधावेश में नहीं आना चाहिए। यदि उसका कोई बुरा करे तो भी उसे कल्याणप्रद शब्दों का उच्चारण करना चाहिए और उसे कभी भी असत्य भाषण नहीं करना चाहिए (मनु ६।४०, ४७-४८, याज्ञ० ३१६१, गौतम ३२३)। (६) उसे श्रौताग्नियां, गृह्याग्नि एवं लौकिक अग्नि (भोजन बनाने के लिए) नहीं जलानी चाहिए और केवल भिक्षा से प्राप्त भोजन करना चाहिए (मनु ६।३८ एवं ४३, आपस्तम्बधर्मसूत्र १।९।२१।१० एवं आदिपर्व ९१३१२)। (७) उसे ग्राम में भिक्षाटन के लिए केवल एक बार जाना चाहिए, वर्षा को छोड़कर रात्रि के समय ग्राम में नहीं रहना चाहिए, किन्तु यदि रुकना ही पड़े तो एक रात्रि से अधिक नहीं रुकना चाहिए (गौतम ३३१३ एवं २०, मनु ६।४३ एवं ५५)। (८) उसे बिना किसी पूर्व योजना या चुनाव के सात घरों से भिक्षा मांगनी चाहिए (वसिष्ठधर्म० १०७, शंख ७।३, आदिपर्व ११९।१२-५ या १० घर)। बौधायनधर्मसूत्र (२।१०।५७-५८) के मत से शालीन एवं यायावर प्रकार के ब्राह्मण गृहस्थों के यहाँ ही भिक्षा के लिए जाना चाहिए और उतने ही समय तक रुकना चाहिए जितने में एक गाय दुह ली जाती है। बौधायनधर्म० (२।१०।६९) ने अन्य लोगों के मतों को उद्धृत कर बताया है कि संन्यासी किसी भी वर्ण के यहां भिक्षा मांग सकता है, किन्तु भोजन केवल द्विजातियों के यहां कर सकता है। वसिष्ठधर्मसूत्र (१०।२४) के मत से वह केवल ब्राह्मण के यहाँ ही भिक्षा मांग सकता है। वायुपुराण (१११८.१७) के अनुसार संन्यासी को केवल एक व्यक्ति के यहां ही नहीं, बल्कि कई व्यक्तियों के यहां से मांगकर खाना चाहिए। उसे मांस था मधु का सेवन नहीं करना चाहिए, आम श्राद्ध (बिना पके भोजन का श्राद्ध) नहीं ग्रहण करना चाहिए और न ऊपर से नमक का प्रयोग करना चाहिए (नमक के साथ पकायी हुई साग-माजी खा लेनी चाहिए)। उशना के मतानुसार भिक्षा से प्राप्त भोजन पांच प्रकार का होता है--(१) माधुकर (किन्हीं तीन, पांच या सात घरों से प्राप्त मिक्षा, जिस प्रकार मधुमक्खी विभिन्न प्रकार के पुष्पों से मधु एकत्र करती है), (२) प्राकाणीत (जब शयन स्थान से उठने के पूर्व ही भक्तों द्वारा भोजन के लिए प्रार्थना की जाती है), (३) अयाचित (भिक्षाटन करने के लिए उठने के पूर्व ही जब कोई मोजन के लिए निमन्त्रित कर दे), (४) तात्कालिक (संन्यासी के पहुंचते ही जब कोई ब्राह्मण भोजन करने की सूचना दे दे) तथा (५) उपपन्न (मक्त शिष्यों या अन्य लोगों के द्वारा मठ में लाया गया पका भोजन)। उशना की यह उक्ति स्मृतिमुक्ताफल (पृ० २००) एवं यतिधर्मसंग्रह (पृ० ७४-७५) में उद्धृत है। वसिष्ठधर्मसूत्र (१०३१) के मत से ____२. एको भिक्षुर्यपोक्तस्तु दो मिनू मिथुमं स्मृतम्। यो प्रामः समाल्यात ऊर्य तु नगरायते॥ मगरं हिम कर्तव्यं प्रामो वा मिथुनं तथा। एतत्वयं प्रकुर्वाणः स्वधर्माच्च्यवते यतिः॥ राजवार्ता ततस्तेषां मिलावार्ता परस्परम् । स्नेहपअन्यमात्सर्व संनिकाल संशयः॥ लाभपूजानिमित्तं तु व्याख्यानं शिष्यसंग्रहः। एते चान्ये च बहवः प्रपञ्चाः कुतपस्विनाम् ॥ ध्यानं शौचं तया भिक्षा नित्यमेकासशीलता। भिक्षोपचत्वारि कषि पञ्चम मोपपवते ॥ वक्ष ७३४-३८ (अपरार्क पृ० ९५२ में तथा मिताक्षरा, यान० ३।५८ में उपत)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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