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धर्मशास्त्र का इतिहास __ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हुआ कि धर्मशास्त्रकारों ने आत्म-हत्या के मामले में कुछ अपवादों को छोड़कर अन्य आत्महन्ताओं को किसी प्रकार भी क्षम्भ नहीं माना है। व्रत-उपवासों से एवं पवित्र स्थलों पर मर जाने को धर्मशास्त्रीय छूट मिली थी, और इस प्रकार की आत्महत्या को मुक्ति ऐसे परमोच्च लक्ष्य का साधन भी मान लिया गया था। स्मृतियों ने वानप्रस्थों के लिए भी आत्महत्या की छूट दे दी थी। वे महाप्रस्थान करके मृत्यु का आलिंगन कर सकते थे, वे कुछ परिस्थितियों में अग्निप्रवेश, जल-प्रवेश, उपवास करके तथा पर्वत-शिखर से गिरकर मर सकते थे। वानप्रस्थों के पतिरिक्त कुछ अन्य लोग भी, जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है, इन विधियों से आत्महत्या कर सकते थे। गौतम (१४। ११) ने लिखा है कि जो लोग इच्छापूर्वक उपवास करके, हथियार से अपने को काटकर, अग्नि से, विष से, जल प्रवेश से, रस्सी से लटककर या पर्वत-शिखर से गिरकर मर जाते हैं उनके लिए किसी प्रकार के शोक करने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु अत्रि (२१८-२१९) ने कुछ अपवाद दिये हैं-यदि वह जो बहुत बूढ़ा हो (७० वर्ष के ऊपर), जो (अत्यभिक दौर्बल्य के कारण) नियमानुकूल शरीर को पवित्र न रख सके, जो असाध्य रोग से पीड़ित हो, वह पर्वतशिखर से पिरकर, अग्नि या जल में प्रवेश कर या उपवास कर अपने प्राणों की हत्या कर दे तो उसके लिए तीन दिनों का अशौच करना चाहिए और उसका श्राद्ध भी कर देना चाहिए।" अपरार्क (पृ०५३६) ने ब्रह्मगर्भ, विवस्वान् एवं गाग्य की उक्तियों का उद्धरण दिया है-'यदि कोई गृहस्थ असाध्य रोग या महाव्याधि से पीड़ित हो, या जो अति वृद्ध हो, जो किसी भी इन्द्रिय से उत्पन्न आनन्द का अभिलाषी न हो और जिसने अपने कर्तव्य कर लिये हों, वह महाप्रस्थान, अग्नि या जल में प्रवेश करके या पर्वत-शिखर से गिरकर अपने प्राणों की हत्या कर सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता है, उसकी मृत्यु तपों से भी बढ़कर है, शास्त्रानुमोदित कर्तव्यों के पालन में अशक्त होने पर जीने की इच्छा रखना व्यर्थ है।" अपरार्क (पृ० ८७७) एवं पराशरमाधवीय (२२, पृ० २२८) ने आदि पुराण से बहुत-से श्लोक उद्धृत किये हैं जो यह बताते हैं कि उपवास करके, या अग्नि-प्रवेश या गम्भीर जल में प्रवेश करके या ऊंचाई से गिरकर या हिमालय में महाप्रस्थान करके या प्रयाग में वट की डाल से कूदकर प्राण देने से किसी प्रकार का पाप नहीं लगता, बल्कि कल्याणप्रद लोकों की प्राप्ति होती है। रामायण (अरण्यकाण्ड, अध्याय ९) में वर्णित शरभंग ने अग्नि-प्रवेश से आत्महत्या की। मृच्छकटिक नाटक में राजा शूद्रक को अग्नि में प्रवेश करके मरते हुए व्यक्त किया गया है। गुप्ताभिलेख (संख्या ४२) से पता चलता है कि सम्राट् कुमारगुप्त ने उपलों की अग्नि में प्रवेश कर आत्महत्या कर ली थी।
जैनों में बहुत से नियम उपर्युक्त नियमों से मिलते-जुलते हैं। समन्तभद्र (लगभग द्वितीय शताब्दी, ईसा के उपरान्त) के ग्रन्थ रत्नकरण्डश्रावकाचार में सल्लेखना के विषय में लिखा है। आपत्तियों, अकालों, अति वृद्धावस्था एवं
१७. वृद्धः शौचस्मृतेर्लुप्तः प्रत्याख्यातभिषक्रियः। आत्मानं घातयेद्यस्तु भग्वान्यनशनाम्बुभिः॥ तस्य त्रिरात्रमाशौचं द्वितीये त्वस्थिसञ्चयम् । तृतीये तूबकं कृत्वा चतुर्थे भाबमाचरेत् ॥ अत्रि २१८-२१९ (मनु ५।८९ की व्याख्या में मेधातिथि द्वारा, याज्ञवल्क्य ३।६ को टीका में मिताक्षरा द्वारा उधृत), यह अपराकं पृ० ९०२ में अंगिरा का तथा पराशरमाधवीय १२२, पृ० २२८ में शातातप का उद्धरण माना गया है।
११. तथा च ब्रह्मगर्भः। यो जीवितुं न शक्नोति महाव्याध्युपपीडितः। सोन्युषकमहायात्रा कुर्वनामुत्र युष्यति ॥ विवस्वान । सर्वेन्द्रियविरक्तस्य वृद्धस्य कृतकर्मणः । व्याधितस्येन्छया तीर्थ मरणं तपसोधिकम् ॥ तथा गार्योपि गृहस्थमधिकृत्याह । महाप्रस्थानगमनं ज्वलनाम्ब प्रवेशनम्। भृगुप्रपतनं चैव वृथा नेच्छतु जीवितुम् ॥ अपराक द्वारा उद्धृत (पृ० ५३६)।
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