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स्वयं देहत्याग
१८७ करने के प्रयत्न को महापाप माना है। पराशर (४।१-२) ने लिखा है कि जो स्त्री या पुरुष घमण्ड या क्रोध या क्लेश या भय के कारण आत्महत्या करता है वह ६० सहस्र वर्ष तक नरक वास करता है। मनु ने लिखा है कि जो अपने को मार गलता है उसकी आत्मा की शान्ति के लिए तर्पण नहीं करना चाहिए (५।८९)। आदिपर्व (१७९।२०) ने घोषित किया है कि आत्महत्या करने वाला कल्याणप्रद लोकों में नहीं जा सकता। वसिष्ठधर्मसूत्र (२३॥१४-१६) ने कहा है जो आत्महत्या करता है वह अभिशप्त हो जाता है और उसके सपिण्ड लोग उसका श्राद्ध नहीं करते ; जो व्यक्ति अपने को अग्नि, जल, मृत्खण्ड (ढेला), पत्थर, हथियार, विष या रस्सी से मार डालता है वह आत्महन्ता कहलाता है। जो द्विज स्नेहवश आत्महन्ता की अन्तिम क्रिया करता है उसे तप्तकृच्छ के साथ चान्द्रायण व्रत करना पड़ता है। आत्महत्या करने का प्रण करने पर भी प्रायश्चित्त आवश्यक है (वसिष्ठधर्मसूत्र २३६१८)। यम (२०२१) ने लिखा है कि जो रस्सी से लटककर मर जाना चाहता है, वह यदि.मर जाय तो उसके शव को अपवित्र वस्तुओं से लिप्त कर देना चाहिए, यदि वह बच जाता है तो उसको २०० पण का दण्ड देना चाहिए, उसके मित्रों एवं पुत्रों में प्रत्येक को एकएक पण का दण्ड मिलना चाहिए और शास्त्र में कहे हुए प्रायश्चित्त एवं व्रत आदि करने चाहिए।
उपर्युक्त सामान्य धारणा के रहते हुए भी स्मृतियों. महाकाव्यों एवं पुराणों में अपवाद कहे गये हैं। मनु (११॥ ७३) एवं याज्ञवल्क्य (३।२४८) में आया है कि ब्रह्महत्या करनेवाला व्यक्ति युद्ध में धनुरियों से अपनी हत्या करा सकता है या वह अपने को अग्नि में झोंक सकता है। इसी प्रकार मद्य पीने वाला खोलती हुई मदिरा, जल, घी, गाय का दूध या गाय का मूत्र पीकर अपने प्राणों की हत्या कर सकता है (मनु १११९०-९१, याज्ञ० ३।२५३, गौतम २३३१, वमिष्ठधर्म० २०१२२)। इसी प्रकार व्यभिचारी, चोर आदि के लिए वसिष्ठधर्म० (१३६१४),गौतम (२३१),आपस्तम्ब (१०९।२५।१-३ एवं ६) ने मर जाने की व्यवस्था दी है। शल्यपर्व (३९।३३-३४) ने लिखा है-"जो सरस्वती के उत्तरी तट पर पृषूदक नामक स्थल पर वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता हुवा अपना शरीर छोड़ देता है वह पुनः मृत्यु का क्लेश नहीं पाता।" अनुशासनपर्व (२५।६२-६४) में आया है कि जो वेदान्त के अनुसार अपने जीवन को क्षणिक समझकर पवित्र हिमालय में उपवास करके प्राण त्याग देता है वह ब्रह्मलोक पहुंच जाता है (देखिए वनपर्व ८५।८३, प्रयाग में आत्महत्या करने के विषय में)। मत्स्यपुराण (१८६३३४-३५) में आया है कि जो अमरकण्टक की चोटी पर अग्नि, विष, जल, उपवास से या गिरकर मर जाता है वह पुनः इस संसार में लौट कर नहीं आता।
__उपर्युक्त धारणावों के साकार उदाहरण शिलालेखों में भी पाये जाते हैं। यशःकर्णदेव के रवैरा दानपत्र से पता चलता है कि कलचुरि राजा गांगेय ने अपनी एक सौ रानियों के साथ प्रयाग में मुक्ति प्राप्त की (सन् १०७३ ई०) (देखिए इस विषय में एपि4फिया इण्डिका, जिल्द १२,पृ० २०५)। चन्देल कुल के राजा धंगदेवने १०० वर्ष की अवस्था में रुन का ध्यान करते करते प्रयाग में अपना शरीर छोड़ दिया (एपिप्रैफिया इणिका, बिल्द १, पृ० १४०)। चालुक्य-राज सोमेश्वर ने योग साधन करने के उपरान्त तुंगभद्रा में अपने को डुबो दिया (सन् १०६८ ६०, एपिफिया कर्नाटिका, जिल्द २, संकेत १३६)। रघुवंश (८१९४) में आया है कि राजा रघु ने वृद्धावस्था में रोग से पीड़ित होने पर गंगा और सरयू के संगम पर उपवास करके अपने को डुबोकर मार डाला और तुरंत ही स्वर्ग का बासी हो गया।
८. अतिमानावतिकोमास्नेहाहा यदि वा स्यात् । उद्बानीयास्त्री पुमान्चा गतिरेवा विधीयते । पूयक्षोजितसम्पूर्ने मन्ये तमसि मन्नति बस्टि वर्षसाहसानिमारक प्रतिपाते॥ पराशर (१२)
९. मात्मानं घातयेचस्तु रखवादिभिल्यामः। मृतोऽमेयेन लेप्तव्यो बीवतो दिसतं पमः॥ मातानिमावि प्रत्येक पनि बमम् । प्रायश्चिततापूर्वपाशालचोदितम् ॥ यम (२०२१)।
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