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महन्त की नियुक्ति -- - मठ के मुख्य संन्यासी को स्वामी, मठपति, मठाधिपति या महन्त कहा जाता है । महन्त की नियुक्ति प्रत्येक मठ के रीति-रिवाजों या परम्पराओं के अनुसार होती है, नियुक्ति मुख्यतया तीन रूपों में होती है; (१) मठ का अधिपति ( महन्त ) अपने शिष्यों में किसी एक योग्य व्यक्ति को चुनकर अपना उत्तराधिकारी बना लेता है, (२) शिष्य लोग अपने में से किसी एक को अपने गुरु का उत्तराधिकारी चुन लेते हैं तथा (३) शासन करनेवाला या मठ का संस्थापक या उसके उत्तराधिकारी लोग महन्त की गद्दी खाली होने पर किसी की नियुक्ति कर देते हैं।
मठ-स्थापना
मन्दिर एवं मठ
मन्दिर एवं मठ धार्मिक एवं आध्यात्मिक कार्यों में एक दूसरे के पूरक रहे हैं। मन्दिरों में इतिहासों, पुराणों आदि का पाठ हुआ करता था। बाण ने लिखा है कि उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर में महाभारत का नियमित पाठ हुआ करता था। राजतरंगिणी (५।२९) में आया है कि कश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा ने रामट उपाध्याय की नियुक्ति मन्दिर में व्याकरण के व्याख्याता के पद ( अध्यापक पद) पर की (९०० ई० के लगभग) । अग्निपुराण (२११/५७) के मत से जो व्यक्ति शिव, विष्णु या सूर्य के मन्दिर में ग्रन्थ का वाचन करता है वह सब प्रकार की विद्या के दान का पुण्य पाता है ।" कुछ मठों में न केवल आध्यात्मिक विद्या का दान किया जाता था, प्रत्युत वहां धर्म-निरपेक्ष अर्थात् लौकिक विद्या दान करने की व्यवस्था थी । (देखिए एपिफिया इण्डिका, जिल्द १, पृष्ठ ३३८ तथा एपिफिया कर्नाटिका, जिल्द ६, संख्या ११) ।
arrefront द्वारा उपस्थापित स्कन्दपुराण के उद्धरण से पता चलता है कि मठ में चौकियों एवं आसनों की व्यवस्था रहती थी, मठ तृणों से आच्छादित होता था और उसमें उन्नत स्थान (वेदिकाएँ) आदि बने रहते थे। ऐसे मठ ब्राह्मणों या संन्यासियों को मंगलमय मुहूर्त में दान किये जाते थे। इस प्रकार के दान से इच्छाओं की पूर्ति होती थी और निष्काम दान देने पर मोक्ष प्राप्त होता था । "
'सठ' शब्द का प्रयोग कभी-कभी 'धर्मशाला' (जहाँ दूर-दूर से आकर यात्री कुछ दिनों के लिए ठहर जाते हैं) के अर्थ में भी हुआ है। राजतरंगिणी ( ६ । ३०० ) में आया है कि रानी दिद्दा ने मध्यदेश, लाट एवं सौराष्ट्र से आनेवाले लोगों के ठहरने के लिए मठ का निर्माण कराया ( ९७२ ई० के लगभग ) ।
मठों एवं मन्दिरों की सम्पत्ति का प्रबन्ध
सारे भारतवर्ष में मन्दिरों एवं मठों के स्थल पाये जाते हैं और उनमें बहुतों के पास पर्याप्त सम्पत्ति है। इन धार्मिक संस्थाओं की संपत्ति का प्रबन्ध तथा उनसे सम्बन्धित न्याय कार्य किस प्रकार होता था तथा उनके कुप्रबन्धों पर . किस प्रकार के प्रतिबन्ध थे, इस विषय में हमें विस्तार के साथ विवरण कहीं नहीं प्राप्त होता । वास्तव में बात यह थी कि प्राचीन काल के धर्माधिकारी, देवस्थलाधिकारी, पुरोहित आदि इतने उज्ज्वल चरित्र वाले थे कि उनके प्रबन्ध में कोई हस्तक्षेप ही नहीं करता था और धर्मशास्त्रकारों ने उनके पूत जीवन एवं धर्माचरण के ऊपर किसी विशिष्ट कानून
१२. शिवालये विष्णुगृहे सूर्यस्य भवने तथा । सर्व वानप्रदः स स्यात्पुस्तकं वाचयेत्तु यः ॥ अग्निपुराण २११।५७॥ १३. कृत्वा मठं प्रयत्नेन शयनासनसंयुतम् । तृणैराच्छादितं चैव वेविकाभिः सुशोभितम् ॥ पुण्यकाले द्विजेभ्यो यतिभ्यो वा निवेदयेत् । सर्वान् कामानवाप्नोति निष्कामो मोक्षमाप्नुयात् ॥ स्कन्दपुराण (वानचन्द्रिका, पृ० १५२ में उबूत)।
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