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________________ ४८. धर्मशास्त्र का इतिहास व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं समझी। मनु (११।२६) ने लिखा है कि 'जो व्यक्ति देव-सम्पत्ति या ब्राह्मण-सम्पत्ति छीनता है वह दूसरे लोक में गृद्धों का उच्छिष्ट भोजन करता है। जैमिनि (९।११९) की व्याख्या में शबर ने लिखा है कि यदि यह कहा जाय कि ग्राम या खेत देवता का है, तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि देवता उस ग्राम या खेत का प्रयोग करता है, प्रत्युत इसका तात्पर्य यह है कि देवता के पुजारी आदि का उस सम्पत्ति से भरण-पोषण होता है और वह सम्पत्ति उसी की है जो उसे अपने मन के अनुसार काम में लाता है। अतः अन्य दानों तथा मूर्ति के लिए दिये गये दानों में अन्तर है। मेघातिथि (मनु ११।२६ एवं २।१८९) ने लिखा है कि मूर्तियाँ या प्रतिमाएँ शाब्दिक अर्थ में स्वामी-पद नहीं पा सकतीं, केवल गौण अर्थ में ही उन्हें सम्पत्ति के स्वामी का पद मिल सकता है, क्योंकि वे अपनी इच्छा के अनुसार सम्पत्ति का उपभोग नहीं कर सकतीं और न उनकी रक्षा ही कर सकती हैं। सम्पत्ति का स्वामित्व तो उसी को प्राप्त होता है जो उसे अपनी इच्छा के अनुसार अपने प्रयोग में ला सके और उसकी रक्षा कर सके।" ____ आधुनिक काल के भारतीय न्यायालयों ने मूर्ति को सम्पत्ति का स्वामी मान लिया है, किन्तु वास्तव में स्वामित्व एवं प्रबन्ध मैनेजर या ट्रस्टी को प्राप्त है। मठ, इसी स्थिति में एक मूर्ति है। मूर्ति या मठ के अधिकारों की रक्षा एवं प्रतिपादन क्रम से मन्दिर के मैनेजर (प्रबन्धक) या ट्रस्टी तथा महन्त के हाथ में है। मनु एवं अन्य स्मृतिकारों ने लिखा है कि मन्दिरों की सम्पत्ति में किसी प्रकार के अवरोध उपस्थित करनेवाले तथा उसका नाश करनेवाले व्यक्तियों को दण्डित करना राजा का कर्तव्य है। याज्ञवल्क्य ( २१२२८) ने मन्दिरों के पास के या पवित्र स्थलों के या श्मशान घाटों के वृक्षों या निर्मित उन्नत स्थलों पर जमे हुए पेड़ों की टहनियों या पेड़ों को काटने पर ४०, ८० या १८० पण दण्ड की व्यवस्था दी है। याज्ञवल्क्य (२।२४० एवं २९५) ने राजा द्वारा दिये गये दानपत्रों में अपनी ओर से कुछ जोड़ देने या घटा देने पर कठिन-से-कठिन दण्ड की व्यवस्था दी है। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य २।१८६) के मत से तड़ागों, मन्दिरों एवं गायों के चरागाहों की रक्षा के लिए बने नियमों की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। मनु (९।२८०) ने लिखा है कि जो राज्य के भण्डार-गृह में सेंध लगाता है या शस्त्रागार या मन्दिर में चोरी करने की इच्छा से प्रवेश करता है उसे प्राण-दण्ड मिलना चाहिए, जो मूर्ति को तोड़ता है उसे जीर्णोद्धार का पूरा व्यय तथा ५०० पण जुरमाने में देने चाहिए। कौटिल्य (३।९) ने भी मन्दिरों पर अनधिकार चेष्टा करनेवाले को दण्डित करने की व्यवस्था दी है। कौटिल्य (५२) ने 'देवताध्यक्ष' नामक राज्यकर्मचारी की नियुक्ति की बात कही है, जो आवश्यकता पड़ने पर मन्दिरों की सम्पत्ति दुर्गों में लाकर रख सकता था और प्रयोग में ला सकता था (और सम्भवतः विपत्ति टल जाने पर उसे लौटा देता था)। नारद (३), स्मृतिचन्द्रिका (व्यवहार, पृ० २७), कात्यायन तथा अन्य लेखकों की कृतियों से पता चलता है कि राजा लोग मन्दिरों, तड़ागों, कूपों आदि की सम्पत्तियों पर निगरानी रखते थे और उन पर किसी प्रकार की विपत्ति आने पर उनकी रक्षा करते थे। प्राचीन काल में (लगभग ई० पू० तीसरी या दूसरी शताब्दी से ही) धार्मिक संस्थाओं की भी एक समिति होती थी, जिसे गोष्ठी कहा जाता था, और उसके सदस्यों को गोष्ठिक कहा जाता था। कुछ शिलालेखों में मन्दिरों के अधीक्षकों १४. देवग्रामो देवक्षेत्रमिति उपचारमात्रम्। यो यदभिप्रेतं विनियोक्तुमर्हति तत्तस्य स्वम्। न च प्रामं क्षेत्र वा ययाभिप्राय विनियुक्ते देवता।... देवपरिचारकाणां तु ततो भूतिर्भवति देवतामुद्दिश्य यत्त्यक्तम् । शबर (जैमिनि ९।११९)। नहि देवतानां स्वस्वामिभावोस्ति मुख्यार्थासंभवाद् गौण एवार्थो प्राहाः। मेधातिथि (मनु २।१८९); देवानुद्दिश्य यागादित्रियार्थ यवनमृत्सृष्टं तद्देवरवं मुख्यस्य स्वस्वामिसम्बन्धस्य देवानामसम्भवात् । न हि देवता इच्छया धनं नियुञ्जत। न च परिपालनव्यापारस्तासां दृश्यते। स्वं लोके च तादृशमुच्यते । मेधातिथि (मनु ९।२६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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