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________________ देव-प्रतिष्ठा पुनः प्रतिष्ठा देवप्रतिष्ठातत्त्व एवं निर्णयसिन्धु ने ब्रह्मपुराण को उद्धृत करते हुए लिखा है कि निम्नोक्त दस दशाओं में देवता मूर्ति में निवास करना छोड़ देते हैं; जब मूर्ति खण्डित हो जाय, चकनाचूर हो जाय, जला दी जाय, फलक (आधार) से हटा दी जाय, उसका अपमान हो जाय, उसकी पूजा बन्द हो गयी हो, गदहा-जैसे पशुओं से छू ली गयी हो, अपवित्र स्थान पर गिर जाय, दूसरे देवताओं के मन्त्रों से पूजित हो गयी हो, पतितों या जातिच्युतों से छू ली गयी हो, जब मूर्ति का स्पर्श ब्राह्मण-रक्त से, शव से या पतित से हो जाय तो उसकी पुनः प्रतिष्ठा होनी चाहिए। जब मूर्ति के टुकड़े हो जायँ या चकनाचूर हो जाय तो उसे हटाकर उसके स्थान पर दूसरी मूर्ति स्थापित करनी चाहिए। जब मूर्ति तोड़ दी जाय या चुरा ली जाय तो उपवास करना चाहिए। यदि धातुओं की मूर्तियाँ चोरों या चाण्डालों द्वारा छू ली जायँ तो उन्हें अन्य पात्रों की भांति पवित्र कर फिर से प्रतिष्ठित करना चाहिए। जब उचित रूप से स्थापित हो जाने के उपरान्त मूर्ति की पूजा मूल से एक रात्रि या एक मास या दोमासों तक न हो या उसे कोई शूद्र या रजस्वला नारी छू ले, तो उसका जल-अधिवास ( जल में रखना) होना चाहिए, उसे घट जल से नहलाकर, पंचगव्य से धोना चाहिए, इसके उपरान्त घड़ों के स्वच्छ जल से पुरुष सूक्त पढ़कर नहलाना चाहिए (ऋग्वेद १०/९० ) । पुरुषसूक्त का पाठ ८००० बार या ८०० बार या २८ बार होना चाहिए। इसके उपरान्त चन्दन एवं पुष्प से पूजा कर, नैवेद्य (गुड़ के साथ चावल पकाकर ) देना चाहिए। यह पुनः स्थापन की विधि है। ४७७ जीर्णोद्धार पुनः प्रतिष्ठा के साथ यह विषय सम्बन्धित है । अग्निपुराण (अध्याय ६७ एवं १०३ ) में वर्णित बातों के आधार पर निर्णयसिन्धु (३, पूर्वार्ध, पृ० ३५३) एवं धर्मसिन्धु ( ३, पूर्वार्ध, पृ० ३३५ ) ने विस्तृत विवरण उपस्थित किया है। मन्दिर की मूर्ति के जल जाने, उखड़ जाने या स्थानान्तरित किये जाने पर जीर्णोद्धार किया जाता है। अग्निपुराण (१०३३४) ने लिखा है कि यदि कोई लिंग या मूर्ति तीव्र धारा में बह जाय तो उसका शास्त्र के नियमों के अनु-सार पुनःस्थापन होना चाहिए। अग्निपुराण (१०३।२१) के मत से असुरो (बाणासुर आदि) या मुनियों या देवताओं या तन्त्रविद्याविशारदों द्वारा स्थापित लिंग को, चाहे वह पुराना हो गया हो या टूट गया हो, दूसरे स्थान पर नहीं ले जाना चाहिए, चाहे भली भाँति पूजा आदि सम्पादित कर दी गयी हो।' अग्निपुराण (६७१३-६) ने लिखा है कि जीर्णशीर्ण काष्ठ-प्रतिमा जला डाली जानी चाहिए, वैसी ही प्रस्तर मूर्ति जल में प्रवाहित कर देनी चाहिए, धातु एवं रत्नों (मोती आदि) की बनी जीर्ण-शीर्ण मूर्ति गहरे जल या समुद्र में डाल दी जानी चाहिए। यह कार्य बड़े ठाठ-बाट तथा बाजे-गाजे के साथ तथा मूर्ति को वस्त्र से लपेट कर करना चाहिए और उसी दिन उसी वस्तु से निर्मित तथा उतनी ही बड़ी दूसरी मूर्ति विधिवत् पूजा के उपरान्त स्थापित कर देनी चाहिए। जब प्रतिदिन की पूजा बन्द हो जाय, या जब मूर्ति को शूद्र आदि छू लें तो पुनः प्रतिष्ठापन के उपरान्त ही पवित्रीकरण हो सकता है। निर्णयसिन्धु, धर्मसिन्धु तथा अन्य ग्रन्थों में जीर्णोद्धार - विधि विशद रूप से वर्णित है । वृद्ध हारीत ( ९१४०९४१५) ने भी इस पर लिखा है। विवादरत्नाकर द्वारा उद्धृत शंखलिखित में आया है कि जब प्रतिमा, वाटिका, कूप, पुल, ध्वजा, बाँध, जलाशय को कोई तोड़-फोड दे तो उनका जीर्णोद्वार होना चाहिए तथा अपराधी को 6 ९. नावेयेन प्रवाहेण तवपाक्रियते यदि । ततोन्यत्रापि संस्थाप्यं विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ असुरर्मुनिभिर्गोत्रस्वतन्त्रविद्भिः प्रतिष्ठितम् । जीणं वाप्यथवा भग्नं विधिनापि न वालयेत् ॥ अग्निपुराण, १०३।४ एवं २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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