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धर्मशास्त्रका इतिहास
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उत्सवों का मनाना तथा उपचार के विविध ढंगों को पूर्णता के साथ अपनाना सरल एवं सम्भव होता है। हमने देवपूजा के अध्याय में व्यक्तिगत मूर्ति पूजा के विषय में लिखा है। हम यहाँ मन्दिर की देव पूजा का वर्णन उपस्थित करेंगे। मन्दिरों में मूर्ति स्थापना के प्रकार- मन्दिरों में मूर्ति स्थापना के दो प्रकार हैं; (१) चलार्चा ( जिसमें मूर्ति उठायी जा सकती है और अन्यत्र भी रखी जा सकती है) तथा (२) स्थिराच (जहाँ मूर्ति स्थिर रूप से फलक पर जमी रहती है और इधर-उधर हटायी नहीं जा सकती ) । इन दोनों प्रकार की प्रतिष्ठाओं के विवरण में कुछ अन्तर है । मत्स्यपुराण ( अध्याय २६४-२६६ ) में विशद वर्णन किया गया है, जिसे हम यहाँ स्थानाभाव के कारण नहीं दे रहे हैं । जिज्ञासु पाठकों को चाहिए कि वे मत्स्यपुराण का अध्ययन कर लें। मध्य काल के निबन्धों (यथा देवप्रतिष्ठातत्त्व आदि) में कुछ तान्त्रिक ग्रन्थों के उद्धरणों से विस्तार बढ़ गया है।
मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, नृसिंहपुराण निर्णयसिन्धु तथा अन्य ग्रन्थों में वासुदेव, शिवलिंग एवं अन्य देवताओं की मूर्तियों की स्थापना के विषय में विशद वर्णन पाया जाता है। इन ग्रन्थों में तान्त्रिक प्रयोगों के अनुसार मातृकान्याभ, तत्त्वन्यास एवं यन्त्रन्यास नामक कई न्यासों की चर्चा हुई है।
वैखानसस्मात सूत्र ( ४११०-११ ) में विष्णुमूर्ति की स्थापना के विषय में वर्णन मिलता है। किन्तु मूर्तिस्थापना का यह विवरण किसी विशिष्ट व्यक्ति के घर में स्थापित मूर्ति के विषय में ही है। इस विवरण को हम उद्धृत नहीं कर रहे हैं ।
देवदासी
बहुत प्राचीन काल से ही मन्दिरों से संलग्न नर्तकियों की व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था का उद्गम रोम की वेस्टल वर्जिन्स नामक संस्था के समान ही है। राजतरंगिणी (४/२६९) में दो मन्दिर-नर्तकियों की चर्चा हुई है ( देवगृहाश्रिते नर्तक्यौ ), जो पृथिवी में दबे एक मन्दिर के स्थल पर नाचती गाती थीं। वाली (खानदेश जिला ) के शिलालेख ( १०६९-१०७० ई० ) में गोविन्दराज के दान वर्णन से पता चलता है कि उन्होंने नाचने-गाने वाली विलासिनियों का प्रबन्ध किया था (एपिफिया इण्डिका, जिल्द २, पृ० २२७ ) । चाहमान राजा जोजलदेव के शिलालेख (१०१० ९१ ई० ) से ज्ञात होता है कि उन्होंने एक उत्सव में सभी मन्दिरों की नर्तकियों को सुन्दर से सु दर वस्त्राभरणों से सुसज्जित होकर आने का आदेश दिया था और जो नहीं आ सकी थीं, उनके प्रति अपना आक्रोश प्रकट किया (एपिफिया इण्डिका, जिल्द ९, पृ० २६-२७) । इस विषय में और देखिए, एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द १३, पृ०५८ । उपर्युक्त प्रथा को देवदासी की प्रथा कहते हैं । रत्नागिरि जिले ( दक्षिण भारत ) में इस प्रथा को भाविनों को प्रथा कहा जाता था। अब यह प्रथा गैरकानूनी ठहरा दी गयी है। पहले मन्दिरों की स्थापना तथा मूर्ति प्रतिष्ठा के साथ कन्याओं का भी दान होता था, जो देवदासी कहलाती थीं । देवदासियों को पवित्र ढंग से रहते हुए देव-पूजा के समय या समय-समय पर नृत्य-गान करना पड़ता था । किन्तु कालान्तर में यह प्रथा व्यभिचार की सृष्टि करने लगी और मन्दिरों से संलग्न देवदासियाँ वेश्याओं के समान समझी जाने लगी । भाग्यवश अब यह प्रथा समाप्त हो गयी है । देवदासी का मानसिक विवाह मूर्ति से होता था ।
८. ( मन्दिरों की मूर्तियों से नाबालिग कन्याओं का विवाह कर दिया जाता था।) 'देवदासी' का अर्थ है 'देव को दासी' और 'भाविन्' शब्द 'भाविनी' शब्द से निकला है और इसका अर्थ है 'भाव रखने वाली नारी; 'भाव' का अर्थ 'देव का प्रेम' ( रतिर्देवादि विषयाभाव इति प्रोक्तः, काव्यप्रकार ४१३५) है।
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