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धर्मशास्त्र का इतिहास
करनी चाहिए। हेमाद्रि (दान, पृ० ८९३-९५ ) ने भी इसे तथा स्कन्दपुराण को उद्धृत कर आरोग्यशाला की स्थापना के महत्व पर प्रकाश डाला है।
असत्प्रतिग्रह
रभृतियों के अनुसार वर्जित दान ग्रहण करने पर पाप लगता है, जो दत्त वस्तु के परित्याग, वैदिक मन्त्रों के (गायत्री के समान) जप एवं तपों (प्रायश्चित्तों) से दूर किया जा सकता है ( देखिए मनु ११।१९३, विष्णुधर्मसूत्र ५४।२८) । इस पाप का कारण है असत्प्रतिग्रह, जो जाति या दाता की क्रिया (दाता चाण्डाल या पतित हो सकता है) आदि से उत्पन्न होता है। यह किसी विशिष्ट काल और देश में (यथा कुरुक्षेत्र में या ग्रहण के समय ) लेने से या किसी देय पदार्थ (मद्य या भेड़ या मृतक की शय्या या उभयतोमुखी गाय ) के ग्रहण करने से उत्पन्न होता है । मनु (११।१९४), विष्णुधर्मसूत्र (५४।२४) एवं याज्ञवल्क्य ( ३।२८९ ) ने असत्प्रतिग्रह के पाप से मुक्त होने के लिए गौशाला में एक मास रहने, केवल दूध पर रहने, पूर्णरूपेण ब्रह्मचर्य पालन करने एवं प्रति दिन ३००० बार गायत्री मन्त्र के जप की व्यवस्था दी है। उपर्युक्त दोनों दशाओं में दाता को कोई पाप नहीं लगता। केवल दान लेने वाला (दान प्रतिग्रहीता ) ही पान का मागी होता है । दानवियाकौमुदी ( पृ० ८४-८५ ) ने कतिपय पुराणों से उद्धरण देकर लिखा है कि गंगा तथा अन्य पवित्र नदियों पर दान नहीं लेना चाहिए, इसी प्रकार हाथियों, घोड़ों, रथों, मृत लोगों की शय्या एवं आसनों, काले मृग के चर्म एवं उभयतोमुखी गाय का दान नहीं लेना चाहिए। दानचन्द्रिका ने पद्मपुराण का उद्धरण देकर समझाया है कि आपत्काल में ब्राह्मण गंगा तथा अन्य पवित्र नदियों पर दान ले सकता है। किन्तु उसे दान का दशमांश दान कर देना चाहिए; ऐसा करने से पाप नहीं लगता ।
प्रतिश्रुतदान की देयता
याज्ञवल्क्य ( २।१७६) ने लिखा है कि प्रतिश्रुत दान दिया जाना चाहिए और प्रदत्त दान वापस नहीं लेना चाहिए। नारद ( दत्ताप्रदानिक, ८) ने घोषित किया है कि पण्यमूल्य ( सामान के क्रय में दिया गया मूल्य), वेतन ( नौकर आदि को ), आनन्द के लिए दिया गया घन (संगीत, नृत्य आदि में ), स्नेह दान, श्रद्धा-दान, कन्या के क्रम में दिया गया धन एवं धार्मिक तथा आध्यात्मिक उद्देश्यों से दिया गया दान वापस नहीं लिया जाता। किन्तु यदि दान अभी दिया न गया हो, केवल अभी वचन दिया हो तो उसे पूरा नहीं माना जाना चाहिए और उसका अन्यथाकरण हो सकता है। गौतम (५।२१) ने लिखा है कि यदि दान लेने वाला व्यक्ति कुपात्र हो, अधार्मिक या वेश्यागामी हो तो उसे प्रतिश्रुत दान नहीं देना चाहिए । यही बात मनु ( ८२१२, में भी पायी जाती है । कात्यायन ने लिखा है कि ब्राह्मण को प्रतिश्रुत धन न देने से व्यक्ति उस ब्राह्मण का इस लोक एवं परलोक में ऋणी हो जाता है (अपरार्क पृ० ७८३) ।
अप्रामाणिक दान
गौतम (५।२२) ने लिखा है कि भावावेश में आकर यथा क्रोध या अत्यधिक प्रसन्नता के कारण, भयभीत होकर, रुग्णावस्था में, लोभ के कारण, अल्पावस्था ( १६ वर्ष के भीतर) के कारण, अत्यधिक बुढ़ापे में, मूर्खतावश, मत्तावस्था में या पागलपन के कारण प्रतिश्रुत किया गया दान नहीं भी दिया जा सकता। नारद ने १६ प्रकार के अप्रामाणिक दानों की चर्चा की है- उपर्युक्त वर्णित ( गौतम ५।२३, जिसमें प्रसन्नता एवं लोभ-जनित दानों को छोड़ दिया गया है) दान, घूस में, परिहास में, बिना पहचाने अन्य को वचन रूप में दिया गया दान, छल से प्रतिश्रुत हो जाने में, अस्वामित्व
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