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वान के प्रकार
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में भी ऐसा वर्णन आया है (एपिफिया इण्डिका, जिल्द १८, पृ० ३४०)। अग्निपुराण (२११।६१) ने सिद्धान्त नामक ग्रन्थों के पठन की व्यवस्था करने वाले दाताओं के दानों की प्रशस्ति गायी है।
ग्रहशान्ति के लिए दान मध्य एव आधुनिक कालों में ग्रहों की शान्ति के लिए भी दान करने की व्यवस्था की गयी है। इस प्रकार के मनोभाव सूत्रकाल में भी पागे जाते थे। गौतम (११।१५) ने राजा को ज्योतिषियों द्वारा बताये गये कृत्य करने के लिए उत्साहित किया है । ग्रहों के बुरे प्रभाव से बचने के लिए आचार्यों ने कुछ विशिष्ट कृत्यों की व्यवस्था की है। आश्वलायनगृह्यसूत्र (३।१२।१६). ने लिखा है कि पुरोहित को चाहिए कि वह राजा को मूर्य की दिशा से (जब युद्ध रात्रि में हो रहा हो या) उस दिशा से जहाँ शुक्र रहता है, युद्ध करने को कहे। याज्ञवल्क्य (११२९५-३०८) ने भी ग्रहशान्ति पर लिखा है। उन्होंने कहा है कि समृद्धि के लिए, आपत्तियाँ दूर करने के लिए, अच्छी वर्षा के लिए, दीर्घायु एवं स्वास्थ्य तथा शत्रु-नाश के लिए ग्रह-यज्ञ करना चाहिए। उन्होंने नौ ग्रहों, यथा-सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु, और उनकी आकृतियाँ बनाने के लिए पदार्थ बताये हैं, यथा-ताम्र, स्फटिक, लाल चन्दन, सोना (बुध एवं बृहस्पति दोनों के लिए), चांदी, लोहा, सीसा एवं कांस्य। ये आकृतियां पदार्थों के रंगों से भी कपड़े पर बनायी जाती हैं या यों ही पृथिवी पर वृत्ताकार एवं रंगयुक्त बनायी जाती हैं। इन्हें पुष्प, वस्त्र चढ़ाये जाते हैं जिनके रंग ग्रहों के रंग के होते हैं। सुगंधित पदार्थ, धूप, गुग्गुल आदि चढ़ाये जाते हैं और मन्त्रों (ऋग्वेद ११३५।२, वाजमनेयो संहिता ९।४०, ऋग्वेद ८१४४।१६, वाजसनेयी संहिता १५।५४, ऋग्वेद २।२३।१५, वाजसनेयी संहिता १९।७५, ऋग्वेद १०।९।४, वाजसनेयी संहिता १३२०, ऋग्वेद १६६।३) के साथ अग्नि में पके भोजन की आहुतियाँ दी जाती हैं । नौ ग्रहों के लिए क्रम से निम्नलिखित वृक्षों की समिधा होनी चाहिए---अर्क, पलाश, खदिर, अपामार्ग, पिप्पल, उदुम्बर, शमी, दूर्वा एवं कुश। घृत, मधु, दही एवं दूध में लिपटी प्रत्येक की १०८ या २८ समिधाएँ अग्नि में डाली जानी चाहिए। ग्रह्यज्ञ के अवसर पर ब्राह्मणों को जो भोजन कराया जाता है वह निम्न प्रकार का होता है---गुड़ मिश्रित चावल, दूध में पकाया गया चावल, हविष्य भोजन (जिस पर संन्यासी जीते हैं), साठी चावल जो दूध में पकाया गया हो , दही-भात, घृत-मिश्रित चावल, पिसे हुए तिल में मिश्रित चावल, चावलमिश्रित दाल, कई रंगों वाले चावल। दक्षिणा के रूप में निम्न वस्तुएं हैं--दुधारू गाय, शंख, बद्धी बैल, सोना, वस्त्र, श्वेत अश्व, काली गाय, लोहे का अस्त्र, एक बकरी। याज्ञवल्क्य (११३०८) ने लिखा है कि राजाओं का उत्कर्षापकर्ष एवं संसार का अस्तित्व एवं नाश ग्रहों पर आधारित है अतः ग्रहों की जितनी पूजा हो सके, की जानी चाहिए। आजकल धर्मसिन्धु के नियमों के अनुसार ग्रहशान्ति की जाती है। संस्काररत्नमाला (पृ. १२३-१६४) में ग्रहमख (ग्रहशान्ति के लिए एक कृत्य) का विशद वर्णन किया गया है। ग्रहमख या तो नित्य (विषुव के दिन, अयन के दिन या जन्म-नक्षत्र के दिन) या नैमित्तिक (उपनयन-जैसे अवसरों पर सम्पादित) या काम्य (विपत्ति आदि दूर करने के लिए या किसी अन्य अभिलाषा या कामना से किया जाने वाला ) होता है।
आरोग्यशाला-स्थापना अपरार्क (पृ० ३६५-३६६) ने याज्ञवल्क्य (११२०९) की टीका में नन्दिपुराण से आरोग्यशाला (अस्पताल) की स्थापना के विषय में एक लम्या विवरण उद्धृत किया है। इस प्रकार की आरोग्यशाला में औषधे निःशुल्क दी जाती है। "धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष नामक चारों पुरुषार्थ स्वास्थ्य पर निर्भर हैं, अतः स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए जो प्रबन्ध करता है वह सभी प्रकार की वस्तुओं का दानी कहा जाता है।" इसके लिए एक अच्छे वैद्य की नियुक्ति
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