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________________ कुछ अप्रधान गृह्य कृत्य . (तैत्तिरीयसंहिता ५।७।२।४), 'ऊनं मे पूर्यताम्', 'श्रिये जातः' (ऋग्वेद ९।९४।४), 'वैष्णवम्' (तैत्तिरीयसंहिता १।२।१३।३) नामक मन्त्रों के साथ घृत की आहुतियां दी जाती हैं, तब पके हुए चावल को घी में मिश्रित कर मधु,' माधव, शुक्र, शुचि, नमः, नभस्य, इष, ऊर्ज, सहः, सहस्य, तपः, तपस्य को, ऋतुओं, ओषधियों, ओषधिपतियों, श्री, श्रीपति तथा विष्णु को आहुतियाँ दी जाती हैं; अग्नि के पश्चिम श्री की एवं पूर्वाभिमुख श्रीपति की पूजा करके हवि अर्पित की जाती है । इसके उपरान्त अन्न की स्तुति के साथ पका हुआ चैश्य भोजन ब्राह्मणों को देकर सपिण्ड लोगों की संगति में स्वयं खा लिया जाता है। . सीतायज्ञ इस यज्ञ का तात्पर्य है "जोते हुए खेत का यज्ञ।" गोमिलगृह्य ० (४।४।२७) में इस यज्ञ का संक्षिप्त विवरण प्राप्त होता है। यह यज्ञ स्मार्त या औपासन अग्नि वाले व्यक्ति द्वारा खेत जोतने के समय किया जाता है। शुभ मुहूर्त में यज्ञ का भोजन बनाकर इन देवताओं को आहुतियां दी जाती हैं-इन्द्र, मरुद्गण, पर्जन्य, अशनि एवं भग। सीता, आशा, अरडा एवं अनधा को घृत की आहुतियां दी जाती हैं। पारस्करगृ० (२०१७) में यह यज्ञ विस्तार से वर्णित है, जिसे हम स्थानाभाव से यहाँ नहीं दे रहे हैं। पारस्करगृह्य० (२०१३) ने हल को निकालने एवं जोतने के प्रयोग में लाने के समय कई प्रकार के कृत्यों का वर्णन किया है। (उत्तर प्रदेश में भी कहीं कहीं 'समहुत' के समय कुछ ऐसी ही पूजा आज भी की जाती है।) श्रावणी या श्रवणाकर्म एवं सर्पवलि गृह्यसूत्रों में आश्वलायन (२।१।१-१५), पारस्कर (२।१४), गोभिल (३।७४१-२३), शांखायन (४।१५), भारद्वाज (२१), आपस्तम्ब आदि ने इन दोनों कृत्यों का वर्णन किया है। ये कृत्य श्रावण की पूर्णमासी को सम्पादित होते हैं। आश्वलायनगृ० ने इनका वर्णन निम्न रूप से किया है-"एक नये घड़े में भुने हुए जो रखकर उसे एक नये शिक्य (सिकहर-घड़ा आदि रखने के लिए पतली छड़ियों से बने ढांचे) पर बलि देने के लिए एक चम्मच के साथ रख दिया जाता है। जो के भुने हुए अन्न का आधा माग घृत में मिला दिया जाता है। सूर्यास्त के समय स्थालीपाक भोजन बनाया जाता है और मृत्पात्र पर एक रोटी पकायी जाती है तथा चार मन्त्रों (ऋग्वेद १।१८९६१-४) के साथ भोजन की आहुतियां दी जाती हैं। रोटी घृत में पूर्णरूपेण डुबो दी जाती है या उसका ऊपरी भाग दिखाई पड़ता रहना चाहिए । रोटी का मन्त्र के साथ (ऋग्वेद १३१८९-५) हवन कर सारा घृत (जिसमें रोटी डुबोयी गयी थी) उड़ेल दिया जाता है। इसके उपरान्त मुना हुआ जो अंजलि में लेकर अग्नि में डाला जाता है। जिस भुने जौ में घृत नहीं मिश्रित रहता वह अन्य लोगों (पुत्र आदि) को दे दिया जाता है। घड़े में से जो का अन्न चम्मच में भरकर घर के बाहर पूर्वाभिमुख एक पवित्र स्थल पर पानी गिराया जाता है और सर्पो को वह भुना अन्न दिया जाता है ('सर्पदेवजनेभ्यः स्वाहा' कहा जाता है) और उनकी सब प्रकार से अभ्यर्थना कर पूजा की जाती है और बलि दी जाती है। इस प्रकार सर्प-पूजा का एक लम्बा विधान है, जिसका विस्तार स्थानाभाव के कारण छोड़ा जा रहा है। परिस्करग० (२११४) ने सर्प-बलि का लम्बा विस्तार दिया है। पति की अनुपस्थिति में पत्नी सर्पबलि कर सकती है। २. मधु से रोकर तपस्य तक प्राचीन काल के महीनों के नाम है (तैत्तिरीय संहिता १।४।१४।१) एवं वाजसनेयी संहिता ७३०)। धर्म० ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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