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धर्मशास्त्र का इतिहास सर्प-दंश के भय से ही सर्प-पूजा की परम्परा चली है। सर्प-पूजा बहुत प्राचीन है (तैत्तिरीयसंहिता १३२२८१३)। इस विषय में अपर्ववेद (८७२३ एवं ११।९।१६ एवं २४) में दिये गये सों के नाम प्रसिद्ध है, यथा तक्षक, धृतराष्ट्र एवं ऐरावत। वर्षा के दिनों में सांपों का विशेष भय होता है, क्योंकि वे बिलों में जल प्रवेश हो जाने के कारण तथा चूहे, मेंढक आदि आहार के लिए बस्ती में आ जाते हैं। इसी से लोग श्रावण मास में सर्पयज्ञ, सर्पपूजा या नागपूजा करते थे। फिर लगातार चार महीनों, अर्थात् मार्गशीर्ष की पूर्णमासी तक प्रति दिन सो को बलि दी जाती थी। मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को ही प्रत्यवरोहन (पुनः उतरना, अर्थात् पलंग से उतरकर पृथिवीपर सोना) भी होता था। महाभारत में नागों की चर्चा बहुधा हुई है (आदिपर्व ३५ एवं १२३१७१; उद्योगपर्व १०३, ९-१६; अनुशासनपर्व १५०।४१), जहाँ वासुकि, अनन्त आदि सात सों के नाम आये हैं। अनुशासनपर्व (१४१५५) में शिव को अपने शरीर पर यज्ञोपवीत की भांति नाग रखने वाला कहा गया है। पुराणों में भी नागों के विषय में कहानियां हैं। नागपूजा दक्षिण भारत में खूब होती है। आजकल नागपूजा श्रावणी (श्रावण की पूर्णमासी) को न होकर श्रावण शुक्ल पञ्चमी को होती है। इस तिथि को आजकल नागपंचमी कहा जाता है। व्रतों के उल्लेख में हम नागपंचमी के विषय में थोड़ा विवरण देंगे। भारत में जितने प्रकार के सर्प पाये जाते हैं उतने कहीं भी नहीं देखने में आते और अन्य देशों की अपेक्षा भारत में सर्प-दंश से प्रति वर्ष सहस्रों व्यक्ति मर जाते हैं।
नागबलि कुछ मध्यकालिक निबन्धों तथा संस्कारकौस्तुम (पृ० १२२) मे नागबलि नामक कृत्य का वर्णन मिलता है। यह कृत्य सिनीवाली (वह दिन जब चन्द्र दिखाई पड़ता है, किन्तु दूसरे दिन अमावस्या पड़ जाती है) के दिन या पूर्णिमा के दिन या पंचमी या नवमी को (जब चन्द्र आश्लेषा नक्षत्र में रहता है, इस नक्षत्र के देवता हैं सर्प) सम्पादित होता है। यह कृत्य या तो सो को मार देने पर पाप-मोचन के लिए किया जाता है, या सन्तान उत्पन्न होने के लिए (सर्प मार देने के कारण सर्प-क्रोध शान्त्यर्थ) किया जाता है। चावल, गेहूँ या सरसों के आटे की एक सांकृति बनायी जाती है, तब उसका सोलहों उपचारों के साथ पूजन होता है और पायस (चावल-दूध या खीर) की बलि दी जाती है। घृत की एक आहुति 'ओम्' एवं तीन व्याहृतियाँ कहकर सर्पाकृति के मुंह में दी जाती है और आज्य का शेषांश उसके शरीर पर छिड़क दिया जाता है। तैत्तिरीय संहिता (४।२।८।३) एवं कुछ पुराणों के मंत्र पढ़े जाते हैं और सर्पाकृति अग्नि में जला दी जाती है। इसके उपरान्त पति अपनी पत्नी के साथ तीन दिनों या एक दिन का अशौच मनाता है। तब ८ ब्राह्मणों को आमन्त्रित किया जाता है। वे जली हुई सर्पाकृति के स्थान पर कल्पित रूप से खड़े होते हैं, तब वे सोलहों उपचारों से पूजे जाते हैं, भोजन एवं दक्षिणा दी जाती है। इसके उपरान्त जलपूर्ण घड़े (कलश) में सोने की सर्पाकृति रखी जाती है और वह आकृति या एक गाय ब्राह्मण को दान कर दी जाती है।
इन्द्रयज्ञ
प्रोष्ठपद (भाद्रपद) की पूर्णमासी के दिन इन्द्रयज्ञ होता था। इसका वर्णन हमें पारस्करगृ० (२।१५) में प्राप्त होता है। इन्द्रयज्ञ संक्षेप में इस प्रकार है--इन्द्र के लिए पायस एवं रोटियाँ पकाकर अग्नि के चतुर्दिक् चार रोटियाँ रखकर और दो आज्यमाग देकर इन्द्र को पायस दिया जाता है; आज्य-आहुतियाँ इन्द्र, इन्द्राणी, अज एकपाद, अहिर्बुध्न्य एवं प्रोष्ठपदाओं को दी जाती हैं; इन्द्र को पायस दिया जाता है, इन्द्र को देने के उपरान्त मरुतों को बलि दी जाती है (क्योंकि मरुत अहुत को खाते हैं-शतपथब्राह्मण ४।५।२।१६); मरुतों को बलि अश्वत्थ के पत्तों पर दी जाती है (क्योंकि मस्त अश्वत्थ वृक्ष पर रहते हैं-शतपथब्राह्मण ४।३।३।६)। वाजसनेयी संहिता (१७।८०
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