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धर्मशास्त्र का इतिहास
काया हुआ नहीं हो । बृहदारण्यकपनिषद् (५।४।१३) में आया है कि विवाहत नारी को रजस्वला होने पर काँसे के पात्र में जल न ग्रहण करना चाहिए, उसे अपने कपड़े नहीं धोने चाहिए, शूद्र नारी या पुरुष उसे न छूए, तीन रात्रियों के उपरान्त उसे स्नान करना चाहिए और तब उसे चावल साफ करने का काम या धान कूटने का काम करना चाहिए। बहुत-से सूत्रों (यथा-- आपस्तम्बगृह्यसूत्र ८११२, हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र १ २४ ७, भारद्वाजगृह्यसूत्र १२०, बौधायनगृह्यसूत्र १।७।२२-२६, बौधायन धर्म सूत्र १।५।१३९ ) ने तैत्तिरीयसंहिता के नियमों का हवाला दिया है । वसिष्ठधर्मसूत्र ( ५/७ - ९ ) ने इन्द्र एवं उसके वरदान की गाथा का उल्लेख किया है और रजस्वला के धर्मों की चर्चा की है। इसके बहुत से नियम उपर्युक्त नियमों के समान ही हैं, कुछ विशिष्ट ये हैं-- रजस्वला को पृथिवी पर सोना चाहिए, उसके लिए दिन में सोना, मांस खाना, ग्रहों की ओर देखना और हँसना वर्जित है । लघु-हारीत (३८) के अनुसार रजस्वला को अपने हाथ पर ही खाना चाहिए। वृद्ध-हारीत ( १११२१०-११ ) ने भी यही लिखा है और जोड़ा है। कि विधवा रजस्वला को तीन दिन व्रत तथा सुहागिनी रजस्वला को दिन में केवल एक बार भोजन करना चाहिए। रजस्वला नारियाँ भी एक-दूसरी को स्पर्श नहीं कर सकती थीं। विष्णुधर्मसूत्र ( २२।७३-७४) के मत से यदि रजस्वला नारी अपने से निम्न जाति की रजस्वला नारी को छू ले तो उसे तब तक उपवास करना चाहिए जब तक चौथे दिन का स्नान न हो जाय, यदि वह अपनी ही जाति वाली या अपने से उच्च वर्ण की रजस्वला नारी को छू लेती है तो उसे स्नान करके ही भोजन करना चाहिए। अन्य नियमों के लिए देखिए अंगिरा ( ४८, यहाँ पंचगव्य की व्यवस्था है), अत्रि ( २७९ - २८३), आपस्तम्ब ( पद्य, ७।२०- २२ ), बृहद् - यम ( ३।६४-६८) एवं पराशर ( ७।११-१५) । यदि रजस्वला को चाण्डाल या कोई अन्त्यज या कुत्ता या कौआ छू ले तो उसे चौथे दिन स्नानोपरान्त ही भोजन करना चाहिए (अंगिरा ४७, अत्रि २७७-२७९ एवं आपस्तम्ब ७1५-८) । यदि ज्वराक्रान्त अवस्था में नारी रजस्वला हो जाय तो उसे पवित्र होने के लिए स्नान नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उसे स्पर्श करके दूसरी नारी वस्त्रसहित स्नान करे और यह कृत्य ( स्नान ) प्रत्येक बार आचमन करके दस बार करना चाहिए। ऐसा करने के उपरान्त बीमार नारी का वस्त्र बदल दिया जाता है और सामर्थ्य के अनुसार दान आदि दिया जाता है, तब कहीं पवित्रता प्राप्त होती है (मिताक्षरा द्वारा याज्ञवल्क्य ३।२० की टीका में उद्धृत उशना, और देखिए अंगिरा २२-२३) । यही कृत्य यदि रोगी पुरुष रजस्वला को छू ले तो उसके लिए किया जाता है। इस विषय में एक स्वस्थ पुरुष सात से दस बार स्नान करता है (अंगिरा २१, पराशर ७११९-२, मिताक्षरा द्वारा याज्ञवल्क्य ३।२० की टीका में उद्धृत) । यदि रजस्वला मर जाय तो उसका शव पंचगव्य से नहलाया जाना चाहिए तथा उसे अन्य वस्त्र से ढककर ही जलाना चाहिए। किन्तु अंगिरा (४२) ने लिखा है कि तीन दिनों के बाद ही शव को नहलाकर जलाना चाहिए। मिताक्षरा ( याज्ञवल्क्य ३।२० ) ने लिखा है कि यदि मास में ठीक समय से ऋतुमती होनेवाली नारी १७ दिनों के भीतर ही ऋतुमती (रजंस्वला) हो जाय तो वह अपवित्र नहीं मानी जाती, किन्तु १८वें दिन पर वह एक दिन में, १९ वें दिन पर दो दिनों में तथा उसके बाद के दिनों पर तीन दिनों में ही पवित्रता प्राप्त करती है ( देखिए अंगिरा ४३, आपस्तम्ब, पद्य ७ २, पराशर ७।१६-१७) ।
राजा के धर्म
अब तक हमने साधारण मनुष्यों (विशेषतः ब्राह्मणों) के आह्निक कर्तव्यों की चर्चा की है। राजा के आि धर्मो ( कर्तव्यों) के विषय में मनु ( ७।१४५ - १४७, १५१-१५४, २१६-२२६), याज्ञबल्क्य ( १।३२७-३३३) एवं कौटिल्य (१।१९ ) ने प्रभूत चर्चा की है। कौटिल्य ने रात और दिन दोनों को पृथक्-पृथक् आठ भागों में बाँटा है और लिखा है कि दिन के प्रथम भाग में राजा को अपनी सुरक्षा के लिए उपचार आदि करना चाहिए एवं आय-व्यय
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