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________________ रजस्वला-धर्म ४३३ में वर्णित है। जब इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को मार डाला तो सभी लोगों ने उसे 'ब्रह्मा' (ब्राह्मण की हत्या करने वाला) कहना आरम्भ कर दिया । इन्द्र अपने पाप (ब्रह्महत्या के पाप) को बाँटने के लिए भागीदारों को सम्पूर्ण विश्व में खोजने लगा। उसके पाप का एक तिहाई भाग पृथिवी ने लिया । उसे वरदान मिला कि यदि उसमें कहीं गड्ढा हो जाय तो वह वर्ष के भीतर मर जायगा, एक-तिहाई वृक्षों ने लिया। उन्हें वरदान मिला कि जब वे काट, तोड़ या छाँट लिये जायें तो पुनः अंकुरित हो उठेंगे। उनमें से जो स्राव निकलता है वह ब्रह्महत्या का ही भाग है, अतः लाल स्राव या झाग नहीं खाना चाहिए। एक-तिहाई भाग स्त्रियों ने ग्रहण किया और उन्हें वरदान मिला कि वे मासिक धर्म के प्रथम सोलह दिनों में ही गर्म धारण करेंगी, और बच्चा उत्पन्न होने तक वे संभोग कर सकती हैं, स्त्रियों में ब्रह्महत्या प्रति मास रजोधर्म के रूप में प्रकट होती है। विष्णुधर्मसूत्र ( ६९ ) ने सभी नियम एक साथ दिये हैं, जिनमें कुछ ये हैं-- श्राद्ध में निमन्त्रित होने, श्राद्ध भोजन करने, श्राद्ध भोजन खिलाने या सोम-यज्ञ के आरम्भिक कृत्य कर चुकने पर मैथुन नहीं करना चाहिए; मंदिर, श्मशान, खाली मकान, वृक्ष की जड़ (आड़) एवं दिन या सायंकाल संभोग नहीं करना चाहिए; इतना ही नहीं, अपने से बड़ी अवस्था वाली नारी, गर्भवती या अधिक या कम अंगों वाली नारी के साथ भी संभोग नहीं करना चाहिए (देखिए विष्णुपुराण ३।११।११०-१२३) । उपर्युक्त नियमों बहुत से प्रजनन-विषयक या स्वास्थ्य सम्बन्धी हैं, इनमें कुछ तो धार्मिक एवं अन्धविश्वासपूर्ण हैं। गौतम (९/२६), आपस्तम्ब धर्मसूत्र ( २।१।१।२१ - २३ एवं २/१/२/१ ), मनु ( ४१४ एवं ५ | १४४) के कथनानुसार संभोग के उपरान्त पति-पत्नी को स्नान करना चाहिए या कम-से-कम हाथ मुंह धोकर तथा आचमन करके शरीर पर जल छिड़ककर पृथक्-पृथक् बिस्तरों पर सोना चाहिए। अन्य लेखकों ने विभिन्न नियम एवं मत उद्धृत किये हैं । में रजस्वला-धर्म तैत्तिरीयसंहिता के काल से ही रजस्वला नारी, उसके पति तथा अन्य लोगों के धर्मों के विषय में नियम आदि की चर्चा होती आयी है । तैत्तिरीयसंहिता ( २/५1१ ) में आया है - " रजस्वला नारी (जो गन्दी रहती है) से न तो बोलना चाहिए, न उसके पास बैठना चाहिए और न उसका दिया हुआ कुछ खाना चाहिए, क्योंकि वह ब्रह्महत्या के रंग से युक्त है ( देखिए इन्द्र की ऊपर वाली कथा ); लोगों का कहना है कि रजस्वला नारी का भोजन अभ्यञ्जन (संभोग-मल) है अतः उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए।" तैत्तिरीय ब्राह्मण ( ३।७।१) में आया है कि यदि यज्ञ करने के पूर्व पत्नी ऋतुमती (रजस्वला) हो जाय तो आघा यज्ञ नष्ट हो जाता है। किन्तु यदि याज्ञिक अपनी रजस्वला पत्नी को कहीं अलग या दूसरे घर में रखकर यज्ञ करता है तो पूर्ण फल मिलता है । तैत्तिरीयसंहिता ने इस संबंध में १३ नियम दिये हैं और कहा है कि उनके उल्लंघन से बुरे फलों की प्राप्ति होती है। वे नियम ये हैं(रजस्वला के साथ) मैथुन नहीं होना चाहिए, स्नानोपरान्त वन में मैथुन नहीं होना चाहिए, स्नानोपरान्त भी पत्नी के मन के विरुद्ध मैथुन नहीं होना चाहिए, रजस्वला को प्रथम तीन दिनों तक स्नान नहीं करना चाहिए, तेल भी उन दिनों नहीं लगाना चाहिए, कंघी नहीं करना चाहिए, अंजन नहीं लगाना चाहिए, दन्तधावन नहीं करना चाहिए, नाखून नहीं काटना चाहिए, न तो रस्सी बटना चाहिए और न सूत कातना चाहिए, पलाशपत्र के पात्र (द्रोण = दोना) में पानी नहीं पीना चाहिए और न अग्नि में पके (मिट्टी के बरतन में ही जल ग्रहण करना चाहिए। इन नियमों के उल्लंघन से क्रम से निम्नलिखित फल मिलते हैं; उसका उत्पन्न पुत्र भयानक अपराध के सन्देह में पकड़ा जाता है, चोर, लज्जालु, जल में डूबकर मर जानेवाला, चर्मरोगी, खल्वाट खोपड़ी वाला, दुर्बल, टेढ़ी आँख वाला, काले दाँत वाला असुन्दर नाखूनों वाला, नपुंसक, आत्महत्यारा, पागल या बौना हो जाता है । तैत्तिरीयसंहिता ने लिखा है कि नियमों का पालन तीन रात्रियों तक होता है, उस समय रजस्वला अंजलि से पानी पीती है या ऐसे पात्र से जो अग्नि में धर्म • ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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