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धर्मशास्त्र का इतिहास
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कहे गये हैं। यह मदिरा मधु से बनी थी । तन्त्रवार्तिक ( पृ० २०९ - २१०) ने लिखा है कि क्षत्रियों को यह वर्जित नहीं थी अतः वासुदेव एवं अर्जुन क्षत्रिय होने के नाते पापी नहीं हुए। मनु ( ११।९३-९४) एवं गौतम (२।२५ ) ने ब्राह्मणों के लिए सभी प्रकार की सुरा वर्जित मानी है, किन्तु क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए केवल पैष्टी वर्जित है । शूद्रों के लिए मद्यपान वर्जित नहीं था, यद्यपि वृद्ध हारीत (९।२७७-२७८) ने लिखा है कि कुछ लोगों के मत से सत्-शूद्रों को सुरापान नहीं करना चाहिए। मनु की बात करते हुए बृद्ध हारीत ने कहा है कि झूठ बोलने, मांस भक्षण करने, मद्यपान करने, चोरी करने या दूसरे की पत्नी चुराने से शूद्र भी पतित हो जाता है। प्रत्येक वर्ण के ब्रह्मचारी को सुरापान से दूर रहना पड़ता था ( आपस्तम्बधर्मसूत्र १।१।२।२३, मनु २।१७७ एवं याज्ञवल्क्य १।३३ ) । याज्ञवल्क्य ( १३३३ ) की टीका में विश्वरूप ने चरक शाखा की बात का उल्लेख करते हुए लिखा है कि जब श्वेतकेतु को किलास नामक चर्म रोग हो गया तो अश्विनी ने उससे मधु (शहद या आसव ) एवं मांस औषध के रूप में खाने को कहा। जब श्वेतकेतु ने यह कहा कि वह ब्रह्मचारी के रूप में इन वस्तुओं का प्रयोग नहीं कर सकता, तो अश्विनौ ने कहा कि मनुष्य को रोग एवं मृत्यु से अपनी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि जीकर ही तो वह पुण्यकारी कार्य कर सकता है। अपरार्क ( पृ० ६३ ) ने ब्रह्मपुराण का हवाला देते हुए लिखा है कि कलियुग में नरमेध, अश्वमेध, मद्यपान तीनों उच्च वर्णों के लिए वर्जित हैं और ब्राह्मणों के लिए तो सभी युगों में। किन्तु यह उक्ति ऐतिहासिक तथ्यों एवं परम्पराओं के विरोध में पड़ती है। महाभारत (आदिपर्व ७६/७७ ) ने शुक्र, उनकी पुत्री देवयानी एवं शिष्य कच की गाथा कही है और लिखा है कि शुक्र ने सबसे पहले ब्राह्मणों के लिए सुरापान वर्जित माना और व्यवस्था दी कि उसके उपरान्त सुरापान करने वाला ब्राह्मण ब्रह्महत्या का अपराधी माना जायगा । मौशलपर्व ( ११२९-३० ) में आया है कि बलराम ने उस दिन से जब कि यादवों के सर्वनाश के लिए मूसल उत्पन्न किया गया, सुरापान वर्जित कर दिया और आज्ञा दी कि इस अनुशासन का पालन न करने से लोग शूली पर चढ़ा दिये जायेंगे। शान्तिपर्व ( ११०।२९ ) ने लिखा है कि जन्म काल से ही जो मधु, मांस एवं मदिरा के सेवन से दूर रहता है वह कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करता है । शान्तिपर्व ( ३४।२० ) ने यह भी लिखा है कि यदि कोई मय या अज्ञान से सुरापान करता है तो उसे पुनः उपनयन करना चाहिए। विष्णुधर्मसूत्र ( २२३८३-८५ ) के अनुसार ब्राह्मणों के लिए वर्जित मद्य १० प्रकार की हैं - माधूक ( महुआ वाली), ऐक्षव ( ईख वाली), टांक (टंक या कपित्थ फल वाली), कौल ( कोल या बदर या उन्नाव नामक बेर वाली), खार्जूर (खजूर वाली), पानस ( कटहर वाली), अंगूरी, माध्वी ( मधु वाली), मैरेय (एक पौधे के फूलों वाली) एवं नारिकेलज ( नारिकेल वाली ) । किन्तु ये दसों क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए वर्जित नहीं हैं। सुरा नामक मदिरा चावल के आटे से बनती थी।
मनु (९/८० ) एवं याज्ञवल्क्य (१।७३ ) के मतानुसार मद्यपान करने वाली पत्नी ( चाहे वह शूद्र ही क्या न हो और ब्राह्मण को ही क्यों न ब्याही गयी हो ) त्याज्य है । मिताक्षरा ने उपर्युक्त याज्ञवल्क्य के कथन की टीका में पराशर (१०) २६) एवं वसिष्ठघर्मसूत्र का हवाला देते हुए कहा है कि मद्यपान करने वाली स्त्री के पति का अर्ध शरीर बड़े भारी पाप का भागी होता है।" वसिष्ठधर्मसूत्र ( २१ । १ ) ने लिखा है कि यदि ब्राह्मण-पत्नी सुरापान
च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा । यथैवैका तथा सर्वा न पातव्या द्विजोत्तमैः ॥ मनु ( ११।९३-९४ ) । सर्वज्ञ नारायण ने मावी की व्याख्या तीन प्रकार से की है— माध्वी द्राक्षारसकृतेति केचित् । मधूकपुष्पेण मधुना वा कृता वाच्यः । १३. पतत्यर्थं शरीरस्य यस्य भार्या सुरां पिबेत् । पतितार्धशरीरस्य निष्कृतिनं विधीयते ॥ वसिष्ठ २१।१५ एवं पराशर १०।२६।
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