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________________ भोजनानन्तर के कृत्य ४३१ करती है तो वह अपने पति के लोक ( मृत्यूपरान्त) को नहीं प्राप्त कर सकती, वह इसी लोक में जोंक एवं सीपी-घोंघा बनकर जल में घूमती रहती है। याज्ञवल्क्य ( ३।२५६) ने कहा है कि सुरापान करने वाली पत्नी अपने आगे के जन्मों में इस संसार में कुतिया, चील या सूअर होती है। याज्ञवल्क्य ( १।१४० ) की टीका में विश्वरूप ने लिखा है कि मद्य या सुरा बेचने वाले को चाहिए कि वह अपनी दूकान के आगे एक झंडा गाड़ दे कि लोग उसे जान सकें, उसकी दूकान ग्राम के मध्य में होनी चाहिए, उसे चाहिए कि वह अन्त्यजों को, आपत्काल को छोड़कर अन्य समयों में, सुरा न बेचे । मेगस्थनीज ( पृ० ६९) एवं स्ट्रैबो (१५।१।५३) ने लिखा है कि यशों के कालों को छोड़कर भारतीय कमी भी सुरापान नहीं करते ( चौथी शताब्दी ईसा पूर्व ) । गौतम ( २३|१), मनु, (११।९०-९१ ) एवं याज्ञवल्क्य ( ३ | २५३) ने लिखा है कि यदि कोई जान-बूझकर और बहुधा सुरा ( = पैष्टी) पीता है तो वह मुख में खौलती हुई सुरा या जल या घृत या गाय का मूत्र या दूध डलवाकर मर जाने के उपरान्त ही पवित्र हो सकता है। अज्ञान में सुरा पी लेने पर कृच्छ्र प्रायश्चित्त से ही पवित्र हुआ जा सकता है ( वसिष्ठघर्मसूत्र २०१९, मनु ११।१४६, याज्ञवल्क्य ३ । २५५)। अपरार्क ( पृ० १०७०) ने कुमार की स्मृति को उद्धृत करते हुए लिखा है कि पाँच वर्ष की अवस्था वाले बच्चे के लिए सुरापान करने पर कोई प्रायश्चित्त नहीं है, किन्तु उसके ऊपर एवं उपनयन के पूर्व सुरापान करने पर उसके माता-पिता, अन्य सम्बन्धी एवं मित्र को तीन कृच्छ्रों का प्रायश्चित्त करना पड़ता है। मनु (७/४७-५२ ) ने राजाओं के अवगुणों में दस को आनन्द - काम से उत्पन्न तथा आठ को क्रोध से उत्पन्न माना है और इन अवगुणों में आनन्द के लिए सुरापान, जुआ, नारियों एवं मृगया को निकृष्ट माना है, किन्तु सुरापान को तो सबसे निकृष्ट दोष गिना है। यही बात कौटिल्य ( ८1३ ) में भी पायी जाती है। गौतम (१२।३८) एवं याज्ञवल्क्य ( २/४७) ने घोषित किया है कि यद्यपि सन्तानों को पितरों के ऋण से मुक्त होना चाहिए और ऐसा करना उनका पावन कार्य है, किन्तु पितरों द्वारा सुरापान के लिए किये गये ऋण को अदा करना उनका कोई कर्तव्य नहीं है । ब्राह्मण के वर्जित पेशों ( व्यवसायों) में सुरा-व्यापार भी है ( मनु १०।८९ एवं याज्ञवल्क्य ३।२७) । भोजन के उपरान्त के कृत्य अब हम पुनः भोजन के विषय की चर्चा में लग जायें। दिन के भोजन (मध्याह्नकाल के भोजन) के उपरान्त नाम्बूल या मुखवास खाया जाता था। प्राचीन काल में भी लोग धुआं-धक्कड़ (धूमपान ) करते थे, जो सुगंधित जड़ी-बूटियों से ( आजकल के तम्बाकू से नहीं) निर्मित पदार्थों से होता था । कादम्बरी में बाण ने लिखा है कि राजा शूद्रक दिन के भोजन के उपरान्त सुगन्धित बूटियों का धूमपान करके ताम्बूल का चर्वण करता था । चरकसंहिता ( सूत्रस्थान, अध्याय ५ ) में आया है कि आठ अंगुल लंबे एवं अँगूठे-जैसे मोटे, खोखले पदार्थ में चन्दन, जातीफल, इलायची तथा अन्य बूटियाँ एवं मसाले भरकर सुखा दिया जाता था और अन्त में खोखले पदार्थ से निकालकर सूखी हुई वस्तु का धूमपान होता था। इस विषय का विस्तार देखिए, इण्डियन ऐक्टीक्वेरी ( जिल्द ४०, पृ० ३७-४० ) । विष्णुपुराण (३ | १|१| ९४ ) के अनुसार दिन के भोजन के उपरान्त कोई शारीरिक परिश्रम नहीं करना चाहिए। दक्ष (२६८-६९ ) के अनुसार दिन के भोजन के उपरान्त चुपचाप आराम करना चाहिए, जिससे कि भोजन पच जाय । इतिहास एवं पुराणों का श्रवण दिन के छठे एवं सातवें भाग तक करके आठवें भाग में गृहस्थ को घर-गृहस्थी का या सांसारिक कार्य देखना चाहिए और इस प्रकार सन्ध्या आने पर सन्ध्या-वन्दन करना चाहिए। याज्ञवल्क्य ( १।११३ - ११४) के मत से मन्ध्य होने तक का समय शिष्ट लोगों एवं प्रिय संबंधियों की संगति में बिताना चाहिए । इसके उपरान्त सन्ध्या-वन्दन करके, तीनों पवित्र (वैदिक) अग्नियों में आहुतियाँ देकर या गृह्य अग्नि में हवन करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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