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________________ ४२८ धर्मशास्त्र का इतिहास कुछ विशेष पदार्थ विशिष्ट कालों तक ही नहीं खाये जा सकते, पथा--ब्रह्मचारी को मधु, मांस एवं क्षारलवण खाना वर्जित है (आपस्तम्बधर्मसूत्र १११२४६. मानवगृह्यसूत्र १११।१२); किन्तु आपत्काल में वह इन्हें खा सकता है (मेधातिथि, मनु ५।२७) । इसी प्रकार वानप्रस्थ एवं यति लोग बहुत-सी वस्तुएँ नहीं खा सकते थे (इसका उल्लेख आगे किया जायगा)। क्षत्रियों को सोम पीना वर्जित था। भोजन बनाने एवं परोसने वाले--पाचकों (मोजन बनाने वालों) एवं परोसने वालों के विषय में भी बहुत-से नियम बने हुए हैं। प्राचीन काल में ब्राह्मण सभी वर्गों के यहाँ भोजन कर सकता था, यहाँ तक कि पाँच प्रकार के शूद्रों के यहाँ भी, अत: पाचकों एवं परोसने वालों के विषय में उन दिनों कोई कठिनाई नहीं थी। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।२।३।१-६) के अनुसार वैश्वदेव के लिए आर्य लोग (तीन वर्गों के लोग) स्नान से पवित्र होकर भोजन बना सकते हैं, पर वे भोजन की ओर मुंह करके बोल, खाँस एवं थूक नहीं सकते, यदि वे बाल, शरीरांग एवं अपना परिधान छू लें तो उन्हें जल-स्पर्श करना चाहिए। आर्यों की अध्यक्षता में शूद्र लोग भोजन बना सकते हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र का कहना है कि शूद्र पाचक को प्रति दिन या आठवें दिन या पर्व के दिनों में अपने केश, दाढ़ी एवं नाखून कटा लेने चाहिए और सारे वस्त्रों के साथ स्नान करना चाहिए । लघु-आश्वलायन (१११७६) के मत से पत्नी, वधू, पुत्र, शिष्य बड़ी अवस्था के सम्बन्धी, आचार्य भोजन बना सकते हैं। नारायण (अपरार्क, पृ० ५००) के मत से द्विजातियों को अपनी जाति वाली पत्नी भोजन परोस सकती है। आदर्श तो यह था कि कोई गृहस्थ किसी के यहाँ यथासम्भव भोजन न करे, कि दोपहित व्यक्ति द्वारा निमन्त्रित होने पर भोजन करना ही चाहिए (गौतम १७४८, मनु ३।१०४, याज्ञवल्क्य १।११२)। मनु (३।१०४) के मत से जो व्यक्ति सदा दूसरों के अन्न पर ही जीवित रहना चाहता है वह मृत्यु के उपरान्त भोजन देनेवाले के यहाँ पशु रूप में जन्म पाता है। मद्यपान-ऋग्वेद ने सोम एवं सुरा में अन्तर बताया है। सोम मदमत्त करने वाला पेय पदार्थ था और इसका प्रयोग केवल देवगण एवं पुरोहित लोग कर सकते थे, किन्तु सुरा का प्रयोग अन्य कोई भी कर सकता था, और वह बहुधा देवताओं को समर्पित नहीं होती थी। ऋग्वेद (७।८६१६) में वसिष्ठ ऋषि ने वरुण से प्रार्थनाभरे शब्दों में कहा है कि मनुष्य स्वयं अपनी वृत्ति या शक्ति से पाप नहीं करता, प्रत्युत भाग्य, सुरा, क्रोध, जुआ एवं असावधानी के कारण वह ऐसा करता है। सोम एवं सुरा के विषय में अन्य संकेत देखिए ऋग्वेद (८।२।१२, १।११६१७, १।१९१।१०, १०।१०७।९, १०।१३।४ एवं ५) । अथर्ववेद (४।३४५६) में ऐसा आया है कि यज्ञ करने वाले को स्वर्ग में घृत एवं मधु की झीलें एवं जल की भाँति बहती हुई सुरा मिलती हैं। ऋग्वेद (१०।१३१।४) में सोम-मिश्रित सुरा को सुराम कहते हैं और इसका प्रयोग इन्द्र ने असुर नमुचि के युद्ध में किया था। अथर्ववेद में सुरा का वर्णन कई स्थानों पर हुआ है, यथा १४।१।३५-३६, १५।९।२-३ । बाजसनेयी संहिता (१९।७) में भी सुरा एवं सोम का अन्तर स्पष्ट किया गया है। तैत्तिरीय संहिता (२।५।१) तथा शतपथब्राह्मण (१।६।३ एवं ५।५।४) में त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप की गाथा आयी है। विश्वरूप के तीन सिर थे, एक से वह सोम पीता था, दूसरे से सुरा तथा तीसरे से भोजन करता था। इन्द्र ने विश्वरूप के सिर काट डाले, इस पर त्वष्टा बहुत क्रोधित हुआ और उसने सोमयज्ञ किया जिसमें इन्द्र को आमन्त्रित नहीं किया। इन्द्र ने बिना निमन्त्रित हुए सारा सोम पी लिया। इतना पी लेने से इन्द्र को महान् कष्ट हुआ, अतः देवताओं ने सीत्रामणी नामक इष्टि द्वारा उसे अच्छा किया। सौत्रामणी यज्ञ उस पुरोहित के लिए भी किया जाता था जो अधिक सोम पी जाता था। इससे मदमत्त व्यक्ति वमन या विरेचन करता था (देखिए कात्यायनश्रौतसूत्र १९॥ ११४)। शतपथ ब्राह्मण (१२।७।३।५) एवं कात्यायनश्रौतसूत्र (१९१।२०-२७) में सुरा बनाने की विधि बतायी गयी है। जैमिनि (३।५।१४-१५) में सौत्रामणी यज्ञ के विषय में चर्चा है। इस यज्ञ में कोई ब्राह्मण बुलाया जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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