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________________ ४१४ धर्मशास्त्र का इतिहास यहाँ तक कि जूठा भोजन भी खाया जा सकता है। ऐतरेयारण्यक (५।३।३) एवं कौषीतकिब्राह्मण (१२॥३) ने मी कुछ प्रतिबन्धों की ओर संकेत किया है। मांस-भोजन एवं मद्य-पान के बारे में आगे लिखा जायगा। मनु (५।४) ने ब्राह्मणों की मृत्यु के चार कारण बताये हैं-(१) वेदाध्ययन का अभाव, (२) सम्यक् कर्तव्यों एवं कार्यों का त्याग, (३) प्रमाद एवं (४) भोजन सम्बन्धी दोष। गृहस्थरत्नाकर (पृ० ३४७) के मत से दूसरे का भोजन करना उसका पाप लेना है...। भोजन-सम्बन्धी सभी प्रकार के विषयों के बारे में विस्तार के साथ नियम एवं प्रतिबन्ध निर्मित हुए हैं । आपस्तम्बधर्मसूत्र (११११।३१।१), वसिष्ठधर्मसूत्र (१२।१८), विष्णुधर्मसूत्र (४८।४०), मनु (२।५) के अनुसार खाते समय पूर्वाभिमुख होना चाहिए तथा विष्णुधर्मसूत्र (६८।४१) एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र (११८।१९।१-२) के अनुसार दक्षिणाभिमुख होकर भी (किन्तु माता के जीवित रहते) खाया जा सकता है। मनु (२। ५२ =अनुशासनपर्व १०४।५७) के मत से पूर्व, दक्षिण पश्चिम एवं उत्तर की ओर मुख करके खाने से क्रम से दीर्घायु, यश, धन एवं सत्य की प्राप्ति होती है। किन्तु वामनपुराण एवं विष्णुपुराण ने दक्षिण एवं पश्चिम ओर मुख करने को मना किया है (गृहस्थरत्नाकर, पृ० ३१२ में उद्धृत)। भोजन एकान्त में लोगों की दृष्टि से दूर होकर करना चाहिए। स्मृतिचन्द्रिका ने देवल, उशना एवं पद्मपुराण को उद्धृत कर लिखा है-एकान्त में भोजन करना चाहिए, क्योंकि इससे धन प्राप्ति होती है, सबके सामने खाने से धनाभाव होता है । जिस प्रकार बहुत लोगों के समक्ष (जो खा न रहे हों) नहीं खाना चाहिए, उसी प्रकार बहुत-से लोगों को एक व्यक्ति के समक्ष (जो खा न रहा हो, केवल तृष्णालु होकर देख रहा हो) नहीं खाना चाहिए। अपने पुत्रों, छोटे भाइयों, भृत्यों आदि के साथ खाया जा सकता है (ब्रह्मपुराण, गृहस्थरत्नाकर, पृ० ३११ में उद्धृत)। किन्तु कुछ ग्रन्थकारों ने कुछ साथियों के विरोध की बात कही है, यथा---'एकान्त में खाना चाहिए, अपने सगे सम्बन्धी के साथ भी नहीं खाना चाहिए, क्योंकि किसी के गुप्त पाप को कौन जानता है ?' बृहस्पति ने लिखा है कि एक पंक्ति में खाने से एक का पाप दूसरे को लग जाता है (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० २२८ में उद्धृत)। उत्तर भारत में भोजन-सम्बन्धी बहुत-से प्रतिबन्ध हैं। कहावत भी है-"तीन प्राणी तेरह चूल्हे" या "आठ कनौजिया नौ चूल्हे" आदि। जहाँ भोजन किया जाता है, वह स्थल गोबर से लिपा रहना चाहिए। नाव या लकड़ी से बने उच्च स्थल पर भोजन नहीं करना चाहिए, पवित्र फर्श पर खाना चाहिए (आपस्तम्बधर्मसूत्र ११५।१७-६-८) । हाथी, घोड़ा, ऊँट, गाड़ी, कब्र, मन्दिर, बिस्तर या कुर्सी पर नहीं खाना चाहिए, हथेली में लेकर भी नहीं खाना चाहिए (गृहस्थरत्नाकर, पृ० ३२५ में उद्धृत ब्रह्मपुराण)। भोजन करने के पूर्व हाथ-पैर धो लेना चाहिए। यही बात मनु (४७६), अनुशासनपर्व (१०४।६१-६२) एवं अत्रि में भी पायी जाती है। व्यास ने भोजन के समय दोनों हाथ, दोनों पैर एवं मुख (पाँच अंगों) के धोने की बात कही है (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० २२१)। सभी धर्मशास्त्रों ने भोजन करते समय मौन रहने की बात कही है (बौधायनधर्मसूत्र २।७।२, लघु-हारीत ४० आदि)। वृद्ध मनु (स्मृतिचन्द्रिका, १, पृ० २२३ में उद्धृत) के अनुसार पाँच ग्रासों तक महामौन रहना चाहिए एवं उसके उपरान्त जहाँ तक हो सके वाणी पर नियन्त्रण करना चाहिए। गौतम (९।५९), बौधायनधर्मसूत्र (२।७।३६), मनु (२०५६), संवर्त (१२) आदि के मतानुसार गृहस्थ को केवल दो बार खाना चाहिए, उसे सन्धिकाल में नहीं खाना चाहिए। गोभिलस्मृति (२।२३) ने और जोड़ दिया है-रात्रि के ४॥ घण्टों (१॥ प्रहर) के उपरान्त तक भोजन किया जा सकता है। न तो प्रातः बहुत पहले न अर्घरात्रि में और न सन्धिकाल में भोजन करना चाहिए (मनु ४।५५ एवं ६२ एवं विष्णुधर्मसूत्र ६८।४८)। हाँ, दोनों भोजनों के मध्य में कन्द-मूल, फल आदि खाये जा सकते हैं (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।८।१९।१०)। मोजन-पात्र (थाली, पत्तल आदि) के नीचे जल से या पवित्र भस्म से रेखाएँ खींच देनी चाहिए। ब्रह्मपुराण (गृहस्थरत्नाकर, पृ० ३११ उद्धृत) के मत से ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों के लिए क्रम से त्रिभुज, वृत्त एवं अर्धचन्द्र का मण्डला या रेखा Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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