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अध्याय २२ भोजन
धर्मशास्त्रकारों ने भोजन-सम्बन्धी नियमों एवं प्रतिबन्धों के विषय में जो विवेचन उपस्थिा किया है, उससे स्पष्ट होता है कि उन्होंने नियम-निर्माण के विषय में विवाह-संस्कार के उपरान्त इसी को सर्वाधिक प्रमुखता दी है। मोजन करने के सिलसिले में दक्ष (२।५६ एवं ६८) ने लिखा है कि दिन के पांचवें भाग में गृहस्थ को अपनी सामर्थ्य के अनुसार देवों, पितरों, मनुष्यों एवं कीट-पतंगों को खिलाकर ही शेष का उपभोग करना चाहिए। दिन के पांचवें भाग में भोजन करने का तात्पर्य है दोपहर (मध्याह्न) के उपरान्त लगभग १॥ घण्टे के भीतर ही गृहस्थ को भोजन कर लेना चाहिए। यहाँ भोजन सम्बन्धी विवेचन में निम्न बातों पर प्रकाश डाला जायगा-(१) कितनी बार भोजन करना चाहिए, (२) भोज्य एवं पेय पदार्थों के प्रकार तथा तत्सम्बन्धी आज्ञा एवं प्रतिबन्न, (३) भोजन दूषित कैसे हो जाता है, (४) मांस-भोजन एवं मद्यपान, (५) किसका भोजन करना चाहिए तथा (६) भोजन के पूर्व भोजन करते समय एवं भोजन के उपरान्त के कृत्य एवं शिष्टाचार।
आहारशुद्धि पर प्राचीन काल से ही बल दिया गया है। छान्दोग्योपनिषद् (७।२६।२) ने लिखा है कि आहारशुद्धि से सत्त्वशुद्धि, सत्त्वशुद्धि से सुन्दर एवं अटल स्मृति प्राप्त होती है एवं अटल स्मृति (वास्तविक सत्त्वज्ञान) से सारे बन्धन (जिनसे आत्मा इस संसार में बंधा रहता है) कट जाते हैं।'
भोजन करना वैदिक साहित्य में पायी जाने वाली विधियों एवं नियमों का उद्घाटन हम संक्षेप में करेंगे। ऋग्वेद (६।३०।३) से पता चलता है कि बैठकर भोजन किया जाता था ('जिस प्रकार लोग खाने के लिए बैठ जाते हैं, उसी प्रकार पर्वत नीचे फंस गया !')। तैत्तिरीय ब्राह्मण (१।४।९) एवं शतपथ ब्राह्मण (२।४।२।६) के अनुसार भोजन दो बार किया जाता था। प्राचीन ग्रन्थों में भी भोजन-सम्बन्धी प्रतिबन्ध थे। तैत्तिरीय संहिता (२।५।१।१) के अनुसार वृक्ष का लाल द्रवरस या काटने पर वृक्ष से जो स्राव निकलता है उसे नहीं खाना चाहिए, क्योंकि वह रंग या वर्ण ब्रह्महत्या के बराबर माना जाता है। इसी प्रकार बच्चा देने पर गाय का दूध दस दिनों तक नहीं पीना चाहिए (तैत्तिरीय ब्राह्मण २।१।१, ३।११३) । वैदिक यज्ञ के लिए दीक्षित व्यक्ति का भोजन वपाहोम के समाप्त होने के पूर्व नहीं करना चाहिए (ऐतरेय ब्राह्मण ६।९)। ऋग्वेद (१३१८७।१-७) ने भोजन की स्तुति की है। छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित उपस्ति चाक्रायण की कथा बताती है कि आपत्ति काल में भोजन न मिलने पर कुछ भी खाया जा सकता है,
१. पञ्चमे च तथा भागे संविभागो यथार्हतः। देवपितृमनुष्याणां कीटानां चोपदिश्यते॥ संविभागं ततः कृत्वा गृहस्थः शेषभुग्भवेत् । वक्ष २५६ एवं ६८। प्रथम पद्य का उबरण अपरार्क (पृ० १४३) ने भी दिया है।
२. आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलम्मे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः। छान्दोग्य० ७।२६।२।
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