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भोजन-विधि
४१५ होनी चाहिए। शंख, लघु-शातातप (१३३), अत्रि के मत से शूद्रों को पात्र के नीचे छिड़क देना पर्याप्त है। मण्डल. बनाने से आदित्य, वसु, रुद्र, ब्रह्मा तथा अन्य देवता भोजन ग्रहण करते हैं, नहीं तो राक्षस-पिशाच आ धमकते हैं। भोजन करनेवाले को चार पैर बाले पोढ़े पर, ऊन के आसन पर या बकरी के चर्म पर बैठकर खाना चाहिए (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।८।१९।१)। उपलों (गोबर से बनी चिपरियों, या ठीकरों या गोहरों) पर बैठकर या मिट्टी के आसन पर, अश्वत्थ या पलाश या अर्क के पत्तों पर या लकड़ी के दो तख्तों को जोड़कर बने आसन पर, अघजले या लोहे की कॉटियों से जुड़े हुए तख्तों वाले पीढ़े पर बैठकर नहीं खाना चाहिए (स्मृत्यर्थसार पृ० ६९)। पृथ्वी पर खिचे मण्डल पर ही भोजन-पात्र रहना चाहिए। भोजन-पात्र सोने, चाँदी, ताम्र, कमलदल या पलाश-दल का हो सकता है (देखिए, व्यास ३।६७-६८, पैठीनसि)। ताम्र के स्थान पर काँसे का पात्र अच्छा माना जाता है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।८।१९।३) के मत से मध्यस्थित सोने वाले ताम्रपात्र में खाना चाहिए। लोहे एवं मिट्टी के पात्र में नहीं खाना चाहिए (हारीत, स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० २२२ में उद्धृत)। किन्तु आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।५।१७।९-१२) ने विकल्प से इन पात्रों के प्रयोग की बात कही है, यथा--जिसमें भोजन न पका हो या जो भोजन पका लेने के उपरान्त अग्नि में गर्म कर लिया गया हो, उस मिट्टी के पात्र को हम भोजन-पात्र के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। इसी प्रकार भस्म से मांजकर लोहे के पात्र को भोजन के लिए शद्ध किया जा सकता है। उस लकड़ी के पात्र को, जो भीतर से भली भांति खरादा गया हो, हम भोजन-पात्र के रूप में काम में ला सकते हैं। मनु (४।६५) ने टूटे पात्र में खाने को मना किया है, किन्तु पैठीनसि के मत से सोने, चाँदी, ताम्र, शंख या प्रस्तर के टूटे हुए पात्रों में भोजन किया जा सकता है।' कुछ स्मृतियों ने कमल-दल एवं पलाश-पत्र को भोजन-पात्र के रूप में वजित माना है, किन्तु आहिकप्रकाश (पृ० ४६७) का कहना है कि यह प्रतिबन्ध केवल पृथिवी पर उगे हुए (जल या तालाब में नहीं) कमल-दल या छोटे छोटे पलाश के पत्रों के लिए ही है। पैठीनसि के अनुसार धनेच्छुक लोगों को वट, अर्क, अश्वत्थ, कुम्भी, तिन्दुक, कोविदार एवं करंज की पत्तियों से निर्मित पात्रों अथवा पत्तलों पर भोजन नहीं करना चाहिए। वृद्ध हारीत (८।२५०२५६) ने लिखा है कि भोजन-पात्र सोने, रजत, ताम्र या किसी भी शास्त्रानुमोदित वृक्ष-पत्र से निर्मित हो सकता है, किन्तु गृहस्थों के लिए कमल-दल एवं पलाश के पत्र वजित हैं, इन्हें केवल यति, वानप्रस्थ एवं श्राद्ध करनेवाले लोग ही प्रयोग में ला सकते हैं। ___भोजन करने के पूर्व आचमन दो बार पहले ही कर लेना चाहिए और भोजनोपरान्त भी यही क्रम होना चाहिए। इस प्रकार का आचमन बहुत प्राचीन है (छान्दोग्योपनिषद् ५।२।२ एवं बृहदारण्यकोपनिषद् ६।१३१४, आपस्तम्बधर्मसूत्र १।५।१६।९, मनु २।५२, ५।१३८ आदि)। भोजन करने के लिए बैठते समय जनेऊ (यज्ञोपवीत) को उपवीत ढंग से पहन लेना चाहिए और उपवस्त्र धारण (बिना सिर ढंके) करना चाहिए (मनु ४।४५, ३।२३८, आपस्तम्बधर्मसूत्र २।२।४।२२-२३ एवं २।८।१९।१२) । घी, तेल, पक्वान्न, सभी प्रकार के व्यञ्जन, नमक (ये वस्तुएं खाली हाथों से नहीं दी जाती) आदि को दर्वी (चम्मच आदि) से देना चाहिए, किन्तु अन्य वस्तुएँ, यथा जल, न पकायी गयी वस्तुएँ आदि यों ही दी जानी चाहिए, अर्थात् इनके लिए दर्वी का प्रयोग आवश्यक नहीं है। भोजन के समय गृहस्थ को सोना, जवाहरात (अँगूठी आदि) धारण कर लेना चाहिए। जब भोजन आ जाय तो उसका सम्मान करना चाहिए, उसे देखकर प्रसन्नता प्रकट करनी चाहिए और उसमें दोष न खोजना चाहिए (गौतम ९।५९, वसिष्ठधर्मसूत्र ३६९, मनु २।५४-५५) । वसिष्ठधर्मसूत्र (३।६९-७१) का कहना है कि 'रोचते इति' (अर्थात् मुझे यह प्रिय
३. ताम्ररजतसुवर्णशक्त्यश्मघटितानां भिन्नमभिन्नमिति पठीनसिः (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० २२२)।
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