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धर्मशास्त्र का इतिहास
ने बृहदारण्यक के भाष्य में भी ऐसा किया है। उन्होंने स्वयं आपस्तम्ब के दोनों पटलों की अध्यात्म-सम्बन्धी बाती की आलोचना की है । विश्वरूप ने याज्ञवल्क्य की टीका में आपस्तम्ब को लगभग बीस बार उद्धृत किया है। मेधातिथि ने मनु की टीका में आपस्तम्ब की कई बार चर्चा की है। मिताक्षरा में इसके कई एक उद्धरण हैं। अपरार्क में लगभग २०० सूत्र उद्धृत हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि शबर के काल ( कम-से-कम ५०० ई० सन्) से लेकर ११०० ई० तक कतिपय ग्रन्थकारों ने आपस्तम्ब को प्रमाण माना है ।
आपस्तम्ब के निवास स्थान एवं जीवन- इतिहास के विषय में कुछ भी नहीं ज्ञात है । आपस्तम्ब आर्ष नाम नहीं है। यह वेद में नहीं मिलता। पाणिनि ( ४.१.१०४) के ' बिदादि' गण में यह शब्द आता है। उन्होंने अपने को अवर अर्थात् बाद में आने वाला कहा है। तर्पण में उनका नाम अधिकतर बौधायन के उपरान्त एवं सत्याषाढ हिरण्यकेशी के पहले आता है। एक स्थान पर 'उदीच्यों' की एक विलक्षण श्राद्ध परम्परा की चर्चा है ( २.७.१७.१७ ) । क्या यह उनके निवासस्थान का सूचक है ? हरदत्त के अनुसार शरावती के उत्तर के देश को 'उदीच्य' कहते हैं, किन्तु महार्णव के अनुसार नर्मदा के दक्षिण-पूर्व आपस्तम्बीय लोग पाये जाते थे, और यह दक्षिण - पूर्व स्थान आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी का मुख है । पल्लवों ने आपस्तम्बियों को भूमिदान दिया है ।
आपस्तम्बधर्मसूत्र का काल अनुमान के सहारे ही निश्चित किया जा सकता है । सम्भवतः यह गौतमधर्मसूत्र एवं बौधायनधर्म सूत्र से बाद का है और ५०० ई० सन् के पूर्व यह प्रमाण रूप में ग्रहण कर लिया गया था । याज्ञवल्क्य एवं शंख-लिखित ने आपस्तम्ब को धर्म शास्त्रकार कहा है । शैली और अपाणिनीय प्रयोग होने के नाते इस धर्मसूत्र का काल प्राचीन होना चाहिए। इसमें बौद्धधर्म अथवा किसी भी विरोधी सम्प्रदाय की कोई चर्चा नहीं पायी जाती। श्वेतकेतु से आपस्तम्ब बहुत दूर नहीं झलकते । सम्भवतः जिन दिनों जैमिनि ने अपनी शाखा चलायी उन्हीं दिनों इनके धर्म सूत्र का प्रणयन हुआ। तो, इनके काल को हम ६००-३०० ई० पू० के मध्य में कहीं रखें तो असंगत न होगा ।
आपस्तम्बधर्मसूत्र के व्याख्याकार हैं हरदत्त, जिनकी व्याख्या का नाम है उज्ज्वला वृत्ति। इसका वर्णन हम ८६ वें प्रकरण में करेंगे। अपरार्क, हरदत्त, स्मृतिचन्द्रिका तथा अन्य ग्रन्थों में आपस्तम्ब के बहुत से उद्धरण हैं ।
८. हिरण्यकेशि-धर्मसूत्र
हिरण्यकेशि-धर्मसूत्र हिरण्यकेशि-कल्प का २६वाँ एवं २७वाँ प्रश्न है । श्रौतसूत्र का प्रकाशन पूना के आनन्दाश्रम ने किया है। डा० किस्तें (वियेना, १८८९ ई०) ने मातृदत्त के भाष्य के आधार पर हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र का सम्पादन किया है। हिरण्यकेशि-धर्मसूत्र को एक स्वतन्त्र रचना कहना जँचता नहीं, क्योंकि इसके सैकड़ों सूत्र ज्यों-के-ज्यों आपस्तम्ब धर्मसूत्र से ले लिये गये हैं । अतः आपस्तम्बधर्मसूत्र का सबसे प्राचीन प्रमाण हिरण्यकेशिधर्मसूत्र है, जिसने सबसे पहले उसके उद्धरण लिये । हिरण्यकेशियों का सम्बन्ध तैत्तिरीय शाखा के खाण्टिकेय भाग के चरण से है । इनकी शाखा आपस्तम्बीय शाखा के बाद की है। कोंगू राजाओं के एक दानपत्र ( ४५४ ई०) में हिरण्यकेशि- शाखा के ब्राह्मणों की चर्चा है। चरणव्यूह के भाष्य में उद्धृत महार्णव के अनुसार हिरण्यकेशी लोग सह्य पर्वत तथा परशुराम क्षेत्र ( अर्थात् कोंकण ) के निकट के समुद्रतट से दक्षिण-पश्चिम दिशा में पाये जाते थे । आज के रत्नागिरि जिले के बहुत-से ब्राह्मण अपने को हिरण्यकेशी कहते हैं ।
महादेव दीक्षित की व्याख्या, जिसका नाम उज्ज्वला है, हरदत्त की उज्ज्वला से सब प्रकार से मिलती है। किसी एक ने दूसरे से ज्यों-का-त्यों ले लिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । लगता है, महादेव दीक्षित से हरदत्त ने बहुत कुछ उधार ले लिया है, क्योंकि महादेव में हरदत्त की अपेक्षा और भी बहुत कुछ है। हरदत्त से महादेव प्राचीन
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