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आपस्तम्ब का धर्मसूत्र
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अर्थात् संन्यासी के नियम अरण्यसेवी साधु के कर्तव्य; गुणियों की प्रशंसा एवं दुराचारियों की भर्त्सना ; राजाओं के लिए विशिष्ट नियम; राजा की राजधानी एवं राजप्रासाद की नींव; सभा की स्थिति; तस्करों (चोरों) का विनाश; ब्राह्मणों को भूमि एवं धन का दान जनता की रक्षा; ऐसे व्यक्ति जिन्हें कर से छुटकारा मिला है; व्यभिचार के लिए नवयुवकों को दण्ड ; नारी को अपमानित करने पर दण्ड, इस विषय में आर्य एवं शूद्र नारी दोनों के अपमान में अन्तर; अपशब्द एवं नर-वघ के लिए दण्ड; कतिपय आचरण-भंग के लिए दण्ड; चरवाहे एवं स्वामी के बीच झगड़ा; झगड़ा करनेवाला, प्रोत्साहक तथा वह जो इस कर्म का अनुमोदन करता है, अपराधी हैं; झगड़ा कौन तय करता है; सन्देह की स्थिति में निर्णय अनुमान द्वारा या दिव्य साक्षी द्वारा होता है; झूठी गवाही पर tus; अन्य शेष धर्मों का अध्ययन ( कुछ लोगों के मत से ) स्त्रियों तथा सभी जातियों के लोगों से करना चाहिए।
आपस्तम्बधमं सूत्र के दो प्रश्नों में प्रत्येक ग्यारह पटलों में विभाजित है। दोनों पटलों में क्रमश: ३२ और २९ कण्डिकाएँ हैं। आज जितने भी धर्मसूत्र विद्यमान हैं, उनमें आपस्तम्ब अपेक्षाकृत अधिक संक्षिप्त एवं सुसंगठित शैली में है, और इसकी भाषा अधिक प्राचीन (आर्ष ) एवं पाणिनि के नियमों से दूर है । यद्यपि यह धर्मसूत्र अधिकतर गद्य में है, किन्तु यतस्ततः पद्य भी पाये जाते हैं । 'उदाहरन्ति' या 'अथाप्युदाहरन्ति' शब्दों द्वारा आपस्तम्ब ने अन्य उपादानों से भी श्लोक आदि ग्रहण कर लिये हैं। कुल मिलाकर २० श्लोक हैं, जिनमें कम से कम छ: बौधायन में भी आये हैं।
आपस्तम्ब ने संहिताओं के अतिरिक्त ब्राह्मणों से भी उद्धरण लिये हैं ( यथा १.१.१.१० ११, १.१. ३.९, १.१.३.२६, १.२.७.७, १.२, ७.११,१.३.१०.८ ) । तैत्तिरीयारण्यक से भी उद्धरण लिया गया है। छः वेदांगों के नाम भी आये हैं—-छन्द, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, निरुक्त, शिक्षा के साथ - साथ छन्दोविचिति की भी चर्चा है । सम्भवतः शिक्षा को व्याकरण के साथ मिला दिया गया है । आपस्तम्ब ने दस धर्माचार्यों के नाम गिनाये हैं, यथा एक, कण्व, काण्व, कुणिक, कुत्स, कौत्स, पुष्करसादि, वार्ष्यायणि, श्वेतकेतु एवं हारीत । कौत्स, वाणि तथा पुष्करसादि के नाम निरुक्त में भी आये हैं । धर्माचार्य श्वेतकेतु उपनिषद् ( छान्दोग्योपनिषद्) वाले श्वेतकेतु नहीं हैं। हारीत की चर्चा बौधायन एवं वसिष्ठ ने भी की है । यद्यपि आपस्तम्ब ने गौतमधर्मसूत्र को उद्भुत नहीं किया है, तथापि वह ग्रन्थ उनकी आँखों के समक्ष अवश्य था । आपस्तम्ब ने भविष्यत्पुराण के मत की चर्चा की है (खण्ड-प्रलय के उपरान्त विश्व सृष्टि ) । एक स्थान पर (२.११.२९.११-१२ ) आपस्तम्ब ने कहा है कि वह ज्ञान, जो परम्परा से स्त्रियों एवं शूद्रों में पाया जाता है, विद्या की सबसे दूर की सीमा है; यह अथर्ववेद का पूरक है । सम्भवतः आपस्तम्ब ने यहाँ पर अर्थशास्त्र की ओर संकेत किया है, जो 'चरणव्यूह' के अनुसार अथर्ववेद का उपवेद है। आपस्तम्ब ने मनु को श्राद्ध की परम्परा का संस्थापक माना है। किन्तु यहाँ के मनु मनुस्मृति के प्रणेता मनु न होकर मानवों के पूर्वज कुलपुरुष मनु हैं। आपस्तम्ब ने महाभारत के अनुशासनपर्व का एक श्लोक ( ९०-४६ ) उद्धृत किया है।
आपस्तम्बधर्मसूत्र का पूर्वमीमांसा से एक विचित्र सम्बन्ध है । मीमांसा के बहुत से पारिभाषिक शब्द एवं सिद्धान्त इस धर्मसूत्र में पाये जाते हैं। इससे पता चलता है कि आपस्तम्ब को मीमांसासूत्र का पता था या मीमांसासूत्र की किसी प्राचीन प्रति में इस सूत्र की उद्धृत बातें ज्यों-की-त्यों थीं । आपस्तम्बधर्मसूत्र में पूर्वमीमांसा
उद्धृत बातें क्षेपक नहीं हो सकतीं, क्योंकि उनकी व्याख्या हरदत्त ने कर दी है।
बहुत प्राचीन काल से आपस्तम्बधर्म सूत्र को प्रमाण रूप में माना जाता रहा है । जैमिनिसूत्रों के भाष्य में "शवर ने आपस्तम्ब को उद्धृत किया है । तन्त्रवार्तिक ने इसके कतिपय सूत्रों का तुलनात्मक अध्ययन किया है। ब्रह्मसूत्र (४.२.१४) के भाष्य में शंकराचार्य ने आपस्तम्ब (१.७.२० ३ ) को उद्धृत किया है। शंकराचार्य
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