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मूर्ति-पूजा हृदय) में रहते हैं । ईश्वर की पूजा अग्नि में आहुतियों से होती है, जल में पुष्प अर्पण करने से, हृदय में ध्यान से एवं सूर्य के मण्डल में जप करने से होती है ।""
प्रतिमा निर्माण के उपकरण एवं प्रतिमा-आकार
रत्न, सुवर्ण, रजत, ताम्र, पित्तल, लोह, काष्ठ या मिट्टी से प्रतिमाएँ बन सकती हैं, जिनमें बहुमूल्य रत्नों से निर्मित सर्वश्रेष्ठ एवं मिट्टी से निर्मित घटिया मानी जाती हैं। भागवतपुराण (११।२७।१२ ) के अनुसार मूर्तियाँ आठ प्रकार की होती हैं, प्रस्तर, काष्ठ, लोह, चन्दन ( या तादृश किसी लेप वाली), चित्र, बालुका की, बहुमूल्य रत्नों की तथा मानसिक । मत्स्यपुराण ( २५८ २०-२१) ने उपर्युक्त सूची में सीसे एवं काँसे की बनी मूर्तियाँ भी जोड़ दी हैं (देखिए वृद्ध हारीत ८।१२० ) । विष्णु- पूजा के लिए प्रस्तर मूर्तियों में शालग्राम प्रस्तर ( गण्डकी नदी के उद्गम पर शालग्राम नामक ग्राम में पाये जानेवाले काले प्रस्तर -खण्ड ) एवं द्वारका के प्रस्तर (गोमतीचक्र जिन पर चक्र बने हों) बड़े महत्त्व के माने जाते हैं । वृद्ध हारीत ( ८।१८३-१८९ ) ने शालग्राम-पूजा की बड़ी महत्ता गायी है । उनके मत से शालग्राम की पूजा केवल द्विज ही कर सकते हैं, शूद्र नहीं । किन्तु कई पुराणों के मत से (पूजाप्रकाश, पृ० २०-२१ में उद्धृत) नारियाँ एवं शूद्र भी बिना स्पर्श किये शालग्राम की पूजा कर सकते हैं। ऋषियों द्वारा अतीत में संस्थापित लिंगों की पूजा भी स्त्रियाँ एवं शूद्र नहीं कर सकते थे। शालग्राम-पूजा पर्याप्त प्राचीन है, क्योंकि वेदान्तसूत्रभाष्य (१।२।७) में शंकराचार्य ने हरि के प्रतीक के रूप में इसकी चर्चा की है। पूजा में पाँच प्रकार के प्रस्तर प्रयोग में आते रहे हैं -- ( १ ) शिव-पूजा में नर्मदा का बाण-लिंग, (२) विष्णु-पूजा में शालग्राम, (३) दुर्गा पूजा में धातुम प्रस्तर, (४) सूर्य - पूजा में स्फटिक प्रस्तर एवं गणेश-पूजा में लाल प्रस्तर। राजतरंगिणी ( २।१३१ एवं ७।१८५) ने कश्मीर में नर्मदा से प्राप्त शिव के बाणलिंगों की स्थापना की चर्चा की है।
घर में पूजने की मूर्तियों के विषय में मत्स्यपुराण ( २५८।२२ ) ने कहा है कि उनका आकार अँगूठे से लेकर १२ अंगुल से अधिक नहीं होना चाहिए, किन्तु मन्दिर में स्थापित होनेवाली मूर्तियों का आकार १६ अंगुल से अधिक नहीं होना चाहिए, या उचित ऊँचाई के लिए निम्न नियम काम में लाना चाहिए— मन्दिर के द्वार की ऊँचाई को आठ भागों में बाँटिए, पुनः सात भागों को एक-तिहाई एवं दो-तिहाई भागों में बाँटिए; मूर्ति का आधार सात भागों की एक तिहाई तथा मूर्ति दो-तिहाई ( अर्थात् द्वार के ७/८ का २/३ ) होनी चाहिए (मत्स्यपुराण २५८।२३-२५) ।
९. ( क ) साकारा विकृतिज्ञेया तस्य सर्वं जगत्स्मृतम् । पूजाध्यानादिकं कार्यं साकारस्यैव शस्यते ॥ विष्णुधर्मोत्तर ३०४६/३; नारदोषि । अप्स्वग्नौ हृदये सूर्ये स्थण्डिले प्रतिमासु च । षट्स्थानेषु हरेः सम्यगर्चनं मुनिभिः स्मृतम् ॥ पूजाप्रकाश ( पृ० १०) एवं स्मृतिचन्द्रिका (आह्निक, पृ० ३८४ ) में उद्धृत; ऋग्विधान ३।२९।२ में भी यही बात पायी जाती है। हृदये प्रतिमायां वा जले सवितृमण्डले । वह्नौ च स्थण्डिले वापि चिन्तयेद्विष्णुमव्ययम् ॥ बृद्धहारीत ६।१२८-१२९; अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे । द्रव्येण भक्तियुक्तोर्चेत् स्वगुरुं माममायया ॥ भागवत ११।२७।९; देखिए वृद्धहारीत ८१९१-९२ ।
(ख) अप्सु देवा मनुष्याणां दिवि देवा मनीषिणाम् । काष्ठलेोष्ठेषु मूर्खाणां युक्तस्यात्मनि देवता ॥ शातातप (आह्निकप्रकाश, पृ० ३८२ में उद्धृत); अग्नौ क्रियावतां देवो दिवि देवो मनीषिणाम् । प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां योगिनां हृदये हरिः ॥ पूजा प्रकाश ( पृ० ८) में उद्धृत (नृसिंहपुराण ६२।५ एवं ऋग्विधान ३।२९ । ३ ) : हविषाग्नौ जले पुर्वा हृदये हरिम् । अर्चन्ति सूरयो नित्यं जपेन रविमण्डले । स्मृतिमुक्ताफल ( आह्निक, पृ० ३८४) ।
धर्म० ५०
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